अतीत यात्रा 2
अलग-अलग दौर की अलग-अलग नैतिकता
अक्सर पुराणों या दूसरे ग्रंथों के किस्से पढ़ते वक्त एक चीज आश्चर्यचकित करती है कि कैसे लोग किसी भी स्त्री से सीधे संभोग के लिये डिमांड कर लेते थे और स्त्री मान भी लेती थी, या नजदीकी रिश्ते में ऐसा करके बच्चे भी पैदा कर लेते थे या खीर आदि खा कर महिलायें गर्भवती हो जाती थीं या देवता वरदान में बच्चे दे जाते थे, या कहीं भी उनके वीर्यपात कर देने से बच्चे का जन्म हो जाता था.. यदि आप धर्म में आस्था रखते हैं तो किसी भी घनघोर इल्लाॅजिकल बात को मान लेंगे और नहीं रखते तो शायद खिल्ली उड़ायें लेकिन अगर आप गहराई से इतिहास को खोदेंगे तो आपको यह सब बातें किसी और रूप में नजर आयेंगी।
दरअसल कारण तब की नैतिकता और अब की नैतिकता के बीच आये 360 डिग्री के फर्क का है। उस वक्त जो चीजें सामान्य प्रचलन में थीं, आज वे घनघोर पाप समझी जाती हैं और यही वजह है कि उस दौर की बातों को लिखते वक्त जब बाद के दौर की नैतिकता से सामंजस्य बिठाने में दिक्कत आती है तो ऐसी अतार्किक कल्पनाओं का सहारा लेना पड़ता है और अब सुनने वाले को वे हंसी के लायक लगती हैं और अगर सच कही जायें तो अब की नैतिकता के हिसाब से सुनने वाला उन्हें अनाचार समझेगा.. पाप समझेगा और इस बात को हजम करना उसके लिये मुश्किल होगा कि उसकी नजर में सम्मानीय रहे लोग इस किस्म का अनैतिक व्यवहार करते थे।
हर चीज को आज की कसौटी पर परखने की वजह से उस इतिहास को समझ पाने में बड़ी अड़चन है जहां लोगों को बच्चे के जन्म का रहस्य नहीं पता था और सिर्फ इस बिना पर कि बच्चे स्त्री की योनि से आते हैं.. वह स्त्री को ही मुख्य समझता था और उसे सारे अधिकार प्राप्त थे। वह दल की मुखिया होती थी, मुख्य पुजारिन होती थी और एक आजाद यूनिट होती थी जिसके साथ संभोग का मतलब देवी को आनंद देना होता था। उस दौर में ज्यादातर समाज मातृसत्तात्मक होते थे और स्त्री योनि उनके लिये पूजनीय थी। आगे इस राज के समझ में आने के बाद कि प्रजनन का सम्बंध पुरुष के वीर्य से है, लिंग को सृजन का केंद्र माना गया और कई समाजों ने लिंग पूजा शुरू की। भारत में शायद पिशाच जाति के लोगों ने इसकी शुरुआत की थी। योनि पूजा का आदिम स्वरूप अभी भी कामाख्या जैसी जगह मिल जायेगा जबकि लिंग पूजा तो आज भी देश भर में हो रही है।
यहाँ दो बातें ध्यान देने योग्य हैं कि यह सब चीजें भारत से लेकर भूमध्यसागर तक हो रही थीं और लिंग पूजा का मतलब शिवलिंग नहीं था। शिव को लिंग के साथ बहुत बाद में जोड़ा गया और वह भी भारत में ही। इसी तरह के प्रतीक अरब भी पूजते थे, जिन्हें वे काबा कहते थे.. अब यह नहीं पता कि उनकी मान्यता भी यही थी या वे किसी और रूप में पूजते थे लेकिन किसी दौर में वहां ढेरों काबा थे, जिन्हें एक काबे को केंद्र बनाने के बाद खत्म कर दिया गया और उस केंद्र में अरब के सभी कबीलों के टाॅटेम ईष्टों की मूर्तियां ला कर स्थापित कर दी गयीं जिससे वहां सालाना तीर्थ यात्रा (हज/उमरा) होने लगी। इसी इतिहास को आधार बना कर ओक ने काबे में शिवलिंग होने की थ्योरी दी थी जो आज भी एक बड़े वर्ग के दिमाग में बैठी हुई है। अपने यहां इन्हीं टाॅटेम ईष्टों को भारत में ब्राहमण धर्म में देवी-देवता या किसी और रूप (जो 33 करोड़ में आते हैं) में पूज्यनीय बना दिया गया।
तो कहने का अर्थ यह था कि प्रजनन में लिंग की उपयोगिता को भले अलग जगह मिली लेकिन जन्म स्त्री ही देती थी तो संभोग के मामले में उसे सारे अधिकार प्राप्त थे। अब एक चीज यह समझिये कि आज संभोग को हम नैतिकता अनैतिकता से जोड़ते हैं लेकिन तब वह इस दायरे से बाहर मात्र आनंद का साधन और प्रजनन का कारक भर था। प्रजनन में भी कोई बाधा नहीं थी, कोई किसी से भी बच्चा पा सकता था और यह इज्जत का सवाल कतई नहीं था जैसा आज समझा जाता है। जब इसे नैतिकता से जोड़ा गया, उसके बाद से ही स्त्री के अधिकार सीमित होते गये।
फरात के किनारे बसे सबसे पुराने नगरों में से एक सुमेरू नगर 'ऊर' में बाकी बंदरगाही शहरों की तरह सारी अर्थव्यवस्था विदेशी व्यापारियों के भरोसे चलती थी (बाद के हजारों साल तक यही चलन रहा), जहां अद्धिशूर का मंदिर उस अर्थव्यवस्था का केंद्र था। वहां देव नर्तकियां विदेशियों का नग्न-नृत्य और संसर्ग से उनका मनोरंजन करती थीं और मंदिर को भारी चढ़ावा आता था। हर साल वहां एक मेला लगता था, जहां हर परिवार अपने घर की ताजी जवान हुई लड़की (तेरह-चौदह साल) को पेश करता था, जिसे विदेशी बोली लगा कर खरीदते थे और उनके हाथों अपना कौमार्य खो कर ही कोई लड़की विवाह की अधिकारी हो पाती थी। जो अनबिकी रह जाती, वह उसका दुर्भाग्य माना जाता और उसे संभोग के अवसर न मिलते।
विवाह का मतलब भी पति से संसर्गीय वफादारी जैसा कुछ नहीं था बल्कि विवाह से पहले और बाद में भी स्त्री किसी भी पुरुष के साथ रमण कर सकती थी। यह भारत से लेकर भूमध्यसागर तक प्रचलन में था। सगे भाई-बहन शादी भी कर सकते थे, बिना शादी संभोग भी कर सकते थे और बच्चा भी पैदा कर सकते थे। कई जगहों पर पिता भी पुत्री के साथ संसर्ग कर सकता था और बच्चा पा सकता था। सेमिटिक में लूत अपनी दोनों बेटियों के साथ, याकूब अपनी बहू के साथ और हिंदू में ब्रम्हा सरस्वती के साथ तो मनु इला के साथ संभोग कर सकते थे हालांकि वे वीर्यजनित बेटियां नहीं थीं लेकिन यह बस बताने के लिये कि ऐसा चलन भी था।
जहां सिवा आनंद या पुत्र प्राप्ति के, किसी भी तरह के स्वार्थवश यही कर्म वेश्यागमन तो हो जाता था लेकिन न उस वक्त यह कर्म बुरा था न ही यह शब्द, वेश्या हो कर भी कोई स्त्री पत्नी भी हो सकती थी और पुजारिनी भी। अद्धिशूर की पुजारिनें वेश्यायें ही होती थीं। ठीक इसी तरह राक्षस, पिशाच, असुर, दानव भी बस जातियों के नाम भर थे न कि बुरे या बुराई का प्रतीक लेकिन बाद की कथाओं में इन्हें आर्यों से लड़ने वाले खलनायकों के तौर पर पेश किया गया और यह शब्द खुद बुराई का प्रतीक बन कर रह गये। हालांकि वे अपने हक की लड़ाई ही लड़ रहे थे लेकिन उन्हें अपना इतिहास लिखने की सुविधा न मिल पाई।
तो कुल मिलाकर पूरी दुनिया की संस्कृतियों में स्त्री पुरुष के बीच का रिश्ता उस दौर तक ऐसा ही रहा जब तक इसे नैतिकता से जोड़ कर नाक का सवाल न बना लिया गया। संभोग के लिये मर्जी स्त्री की चलती थी, वह किसी का भी प्रणय निवेदन स्वीकार/अस्वीकार कर सकती थी, विवाह से पहले या बाद में किसी से भी बच्चा पैदा कर सकती थी, हालांकि बाद के दौर में यह भी धारणा बनी कि बच्चा पैदा कर चुकी स्त्री संभोग में वह आनंद नहीं देती तो शादी से पहले वाले बच्चे छुपाये भी जाने लगे। संभवतः महाभारत का कर्ण इसी का उदाहरण था जबकि शादी के बाद के बच्चे किसी और से पैदा करने में कोई बुराई नहीं थी, जैसे बाकी पांडव थे।
अब जिस चीज में जमीन आस्मान का फर्क आ चुका हो, उसमें लेखकों के लिये भयंकर दिक्कत तो थी ही कि वे उस दौर की सच्चाई लिखते तो लोग हजम न कर पाते, और कल्पनाशीलता के सहारे उन चीजों को कवर करने की कोशिश की गयी तो वे हंसी और अविश्वास का कारण बन गयीं। मैं इसमें लेखकों की गलती नहीं मानता, उनके सामने भयंकर दुविधा थी.. यह शायद हमारी कमी है कि हम आज के चश्मे से हर चीज को देखना चाहते हैं और जो मान्यताएं आज हैं, उनके खिलाफ कुछ भी सुनने में असहज हो जाते हैं। इतिहास पर अपना मत या पूर्वाग्रह न थोप कर उसे उसी देश काल के अनुसार समझने की कोशिश करें तो इतनी मुश्किल भी नहीं है।
क्रमशः
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