अतीत यात्रा 4


टाॅटेम ने कैसे भारतीय धार्मिक कांसेप्ट को प्रभावित किया  

"नाग जब मुंह बंद कर लेता है तब अंधेरा हो जाता है.. तब उसकी मणि निकलती है। वही आकाश में चंदा के रूप में चमकती है। नाग तब धरती को लपेट कर अपनी गड़ेडी में भर लेता है। जब वह लंबी-लंबी सांस लेता है तब हवा सनसनाती है। उसके मुंह से जब आग निकलती है तब आकाश में लकीर खिंच जाती है।"

क्या था यह.. एक छोटा मोटा ईश्वरीय कांसेप्ट। अनसुलझे सवालों और प्रकृति के रहस्यों को अपने तौर पर समझने की कोशिश। इसी से एक समूह अपनी पहचान नाग के रूप में निर्धारित करने में कामयाब रहा और नाग को उसने अपना ईष्ट बना लिया। इसी चीज को टाॅटेम कहते हैं। यानि यह समझिये कि कभी किसी धर्म ग्रंथ में नाग या नागवंश पढ़ें तो वहां कुछ भी लिखा हो, पर समझिये कि वह इसी टाॅटेम कबीले से सम्बंधित लोगों की बात है न कि किसी इंसान जैसे सांप की.. जिनके कुछ मौजूदा वंशज अभी भी असाम में मिल जायेंगे।

"नाग अंधकार है.. गरुड़ देवता बार-बार उस पर आक्रमण करता है और वह बार-बार भाग जाता है। प्रातःकाल जब गरुड़ देवता सूर्य बन के निकलता है तब नाग समुद्र की तह में छुप जाता है और गरुड़ देवता के थक कर सोने चले जाने के बाद नाग बाहर निकलता है और आकाश में जगमगाते गरुड़ देवता के अंडे खाने लगता है। तब देवता फिर चंद्रमा बन के निकलता है और नाग को भगा देता है।"
पहली अवधारणा के बरक्स यह काउंटर कांसेप्ट था जिसने अपनी अलग मान्यता स्थापित कर ली, जिसमें गरुड़ मुख्य था। इसकी पहचान गरुड़ जाति के रूप में स्थापित हुई। इसी तरह यक्ष, गंधर्व, वानर, पिशाच, किरात, निषाद आदि सबके पास अपनी-अपनी कहानियां थीं। अपने विकास के दौरान किसी को किसी विशेष जीव (मसलन नाग, गरुड़, वानर, रीछ, चूहा, हाथी आदि) से मदद मिली तो उसने उसी जीव को ईष्ट बना कर अपने अबूझ सवाल हल कर लिये तो किसी को प्रकृति के किसी हिस्से (मसलन बादल, बारिश, नदी, वन, पीपल आदि) से किसी तरह मदद मिली या वह समूह उस चीज पर ज्यादा आश्रित हो गया तो उसे ही ईष्ट बना लिया। इसी से मास्क भी चलन में आया (जैसा साउथ की नृत्य परंपराओं में आज भी देख सकते हैं) जिसमें किसी की कबीलाई पहचान उस मास्क के जरिये होती थी जो वह नृत्य/उत्सव जैसे अक्सर अवसरों पर लगाते थे।

दूसरे शब्दों में कहें कि भारत भर में जितनी जातियां थीं उतने धर्म थे और उनकी पहचान उनकी जातीय पहचान पर ही आधारित थी। कालांतर में जब आबादियां बढ़ीं, हिंसा या समर्पण के साथ अंतर्भुक्तिकरण हुआ तो बहुत से कांसेप्ट आपस में गडमड हो गये और यही वजह है कि आगे जब इस भूभाग के सारे विश्वासों/मान्यताओं को समाहित करके एक केंद्रीय धर्म बना तो उसमें लगभग सभी के ईष्ट और उनकी कहानियां ले ली गयीं और यही वजह है कि आप हिंदू धर्म में इतनी वैरायटी पाते हैं और कोई भी एक विचार सभी जगह समान रूप में मान्य नहीं होता.. मसलन उत्तर भारत में राम पर आधारित संस्कृति को सर्वोच्चता हासिल है तो पूर्व में जा कर वह दुर्गा के आसपास ढल जाती है, उड़ीसा में कुछ और तो दक्षिण में वह कुछ और भगवानों को प्राथमिकता देती नजर आती है।
इसी वजह से यह तैंतीस करोड़ देवी-देवता नजर आते हैं जो सभी टाॅटेम जातियों की आस्थाओं से लिये गये हैं और इसी सम्मिश्रण में अलग-अलग भगवानों को एडजस्ट करने की कोशिश अवतारवाद है जिसमें सबसे आखिर में दिखे सबसे सशक्त हुए बुद्ध को भी साधने की कोशिश हुई लेकिन वह उतनी कारगर न रही। इसी वजह से आपको एक ही कहानी कई वर्शन के साथ और एक ईष्ट एक से ज्यादा रूप में भी दिख सकते हैं। इसी वजह से भारत से लेकर थाईलैंड और मलेशिया तक आपको रामायण के दर्जनों वर्शन मिल जायेंगे। दरअसल वर्तमान का हिंदू धर्म कोई एक धर्म न हो कर तमाम तरह के स्थानीय धर्मों की काॅकटेल है जिसमें चार्वाक का नास्तिक दर्शन तक शामिल है।

अब फिर से इस टाॅटेम पर फोकस कीजिये, और तलाशिये कुछ अटपटी आकृति वाले ईष्टों को जिन्हें डिफेंड करने के लिये पहली सर्जरी जैसी गपें हांकनी पड़ती हैं। भारत के मुकाबले अरब की तरफ भी ऐसे ही टाॅटेम कबीलों की भरमार थी जिनके ईष्टों को मुख्य काबे में समेट कर पूरे भूगाग के एकीकरण की कोशिश की गयी थी जिसमें आर्थिक हित भी जुड़े थे लेकिन वहां इस्लाम के अवतरण के बाद सबकी मान्यताएं रद्द कर दी गयी थीं और सबको जबरन एक रूप में ढाल लिया गया था जबकि भारत में सबको जगह देने की कोशिश हुई, जिसका मुख्य कारण इसका बहुदेववादी ढांचा था। बहरहाल, सबको समेट कर एक केंद्रीय धर्म बनने के बाद भी इसकी कोई बड़ी पहचान नहीं थी.. हिंदू पहचान तो बहुत बाद में फारसियों या चीनियों की तरफ से मिली। उससे पहले आमतौर पर वैदिक/ब्राहमण धर्म के रूप में ही जाना जाता था।
अब यहां एक चीज और समझिये कि जब यज्ञ वाले कबीले छोटी आबादियों के रूप में स्थापित हुए तब उनके यज्ञ में सब मिल कर शामिल होते थे और उस प्रक्रिया, उससे उपजे फैसले को ब्रह्म कहते थे। बाद में समाज बड़े होते गये, दूसरी जगहें कब्जाने और उससे उपजे खतरों के मद्देनजर लड़ने वाली एक अलग इकाई की जरूरत पड़ी तो इस ब्रह्म से कुछ लोगों को अलग किया और उन्हें ब्रह्म की सुरक्षा की जिम्मेदारी देते क्षत्रिय की संज्ञा दी गयी और बाकी बचे वर्ग को ब्रह्म को भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी दी गयी जिसे वैश्य के रूप में चिन्हित किया गया। यानि जो कभी एक थे वे तीन अलग वर्गों में बंट गये और इसी चीज को ब्रह्मा के रूप में एक विराट पुरुष के रूप में रूपक की तरह गढ़ दिया गया और एक बह्म समूह से अलग हुए हिस्सों को प्रतीक के रूप में ब्राहमण मुख से, क्षत्रिय भुजा से और वैश्य पेट से जनित बता दिये गये। शूद्र तब इस खांचे में फिट नहीं थे। उन्हें काफी आगे आ कर इस ढांचे में जगह मिली, जिसके बारे में अगले पार्ट में लिखेंगे।

ब्रह्म को जिस तरह कुछ कथाओं में बायलोजिकल यूनिट के रूप में पाया जाता है तो इस बात की भी संभावना है कि इनके बीच कभी इस नाम का कोई व्यक्ति हुआ हो। विष्णु कोई बायलोजिकल यूनिट थे या नहीं, इस बारे में सिर्फ कयास लगाये जा सकते हैं लेकिन एक चीज तथ्य है कि इस चरित्र का इस्तेमाल अलग-अलग टाॅटेम ईष्टों को अवतारवाद में फिट करने के लिये कई जगह किया गया जबकि शिव के साथ जिस तरह की चीजें सामने आती हैं, उससे उनके बायलोजिकल यूनिट होने की मजबूत संभावना तो नजर आती है जो वैदिक कांसेप्ट से बाहर थे, अनार्य थे और वैदिक रीति रिवाज वालों से इनके फाॅलोवर्स का संघर्ष रहा था। कालांतर में सबको समाहित करने के उद्देश्य से हुए व्यापक एकीकरण के बाद भी शैव, वैष्णव, शाक्त के रूप में इनके बीच एक लंबा वर्ग संघर्ष चला लेकिन आधुनिक दौर तक पहुंचने से पहले उस पर भी विजय पा ली गयी और शिव ट्रिनिटी का हिस्सा हो गये, वर्ना पहली सूरत में बाकियों की तरह अवतार के रूप में ही एडजस्ट होते।
यहां एक चीज यह भी समझ लीजिये कि ऐसा नहीं था कि आर्य लोग बाहर से आये, प्रजनन से अपनी आबादी बढ़ाई और यहां के सब लोकल्स को जीत कर बंदी/दास बना लिया बल्कि लोकल्स के साथ ही वे आबादी के रूप में बढ़े थे और कोई विजित होकर उनके खेमे में आया तो कोई समझौते से। मतलब एक गरुड़ परिवार के दो कबीलों में से एक कबीला हार कर दास हुआ तो दूसरा कबीला उनकी ताकत देख उनकी आधीनता स्वीकार करके ब्रह्म का हिस्सा बना भी हो सकता है और फिर हजारों साल तक इंटर ब्रीडिंग भी होती रही.. यानि आज की तारीख में किसी शुक्ला, दूबे, तिवारी में लोकल्स का ब्लड और किसी जाटव, वाल्मीकि, यादव, वर्मा में आर्यन ब्लड भी मिल सकता है तो ऐसे में यह मूलनिवासी बनाम बाहरी की लड़ाई का कोई औचित्य नहीं बनता जिसके सहारे दलितों को मूलनिवासी और ब्रह्म समूह को (खासकर ब्राहमणों को) बाहरी बताया जाता है। मूलनिवासी सिर्फ आदिवासी ही पाये जायेंगे अब।

अब फिर शुरू से देखिये.. इस पूरे कांसेप्ट में एक पेंच यह भी था कि यह एक हिंसा भरी जीवनशैली का प्रतिनिधित्व करता था जिसमें हमले, लूटपाट, जंग, पशु बलि, नर बलि सब थी तो मानव स्वभाव के हिसाब से यह चीज सबको तो नहीं ही पचनी थी। यह आज के अहिंसावादी ब्राहमणों को देख कर अतीत का अंदाजा मत लगाइये, उस वक्त के ब्राहमण भी बाकियों की तरह हिंसा करते थे और दबा के मांसभक्षण भी करते थे। बहरहाल इसके अगेंस्ट भी एक अहिंसावादी विचारधारा पनपी जो आगे जैनिज्म के रूप में स्थापित हुई लेकिन इसके नियम काफी कड़े थे तो आगे चल कर थोड़ी उदार अहिंसावादी विचारधारा पनपी जो बौद्धिज्म कहलाई और जैनिज्म के मुकाबले काफी कामयाब रही और दूर दराज तक फैली। यहां तक कि सारा भारतीय भूभाग ही एक समय में बौद्धमय हो गया था। भारत में मुख्य धर्म में निराकार की पूजा के साथ साकार की पूजा भी कई जातियों में चलन में थी लेकिन मंदिरों का चलन इन्हीं दोनों धर्मों के अस्तित्व में आने के बाद शुरू हुआ था।
अब इन नये धर्मों के मानने वाले भी बाकियों की तरह 'मेरी दुकान असली' साबित करने के चक्कर में खुद को अति प्राचीन बताते काल्पनिक गाथायें लेकर बैठ जाते हैं जबकि चाहें तो आस्था को साइड में रख कर सहजबुद्धि से समझ सकते हैं कि दुनिया की आबादियों के ठीक से सभ्य संगठित होने से पहले अहिंसक होने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। अगर आप दूसरों को न मारते तो दूसरा आपको मार देता। उस दौर में सर्वाइवल की पहली शर्त ही हिंसा थी तो जाहिर है कि उस वक्त ऐसी विचारधारा पनप ही नहीं सकती थी। यह तभी पनपी है जब छोटी आबादियां राज्यों के रूप में ढलीं और इन्हें राजा जैसी एक केंद्रीय शक्ति का संरक्षण मिला। यह संरक्षण ही जैनिज्म, बौद्धिज्म को उस दौर में खड़ा कर सकता था।

अशोक के बाद जब बौद्धिज्म ने पूरे भारत पर अपना प्रभाव जमा लिया था तो भी एक तरह की कमजोरी ही थी कि आपने रक्षण को भी जंग लगा ली, जिसका फायदा दूसरों ने उठाया क्योंकि रक्षण के लिये तो हिंसा का सहारा लेना ही पड़ेगा और आगे पुष्यमित्र शुंग के दौर में इस सिनारियो को पूरी तरह पलटने की कोशिश शुरू हुई जो काफी हद तक कामयाब भी हुई। अब उस वक्त क्या हुआ था, यह नवीन इतिहास है तो सबको पता होना चाहिये। जैन और बौद्ध धर्म जहां भारत के मूल धर्म की हिंसात्मक जीवनशैली के जवाब में पनपे थे वहीं इस धर्म के प्रारूप में आगे आने वाले दोषपूर्ण सामाजिक बंटवारे, भेदभाव, छुआछूत के खिलाफ सिख धर्म वजूद में आया जो नये जमाने की बात है और अगर मुगल और अंग्रेज न आये होते तो शूद्रों के उस तरफ शिफ्ट होने के बजाय शायद अब तक कोई और बराबरी वाला नया धर्म वजूद में आ चुका होता क्योंकि यह शिफ्टिंग सिख धर्म की तरफ तो नाम की ही होती, कारण वही सख्त नियम, जिनकी वजह से जैनिज्म के होते हुए भी अतीत में बौद्धिज्म की जरूरत पड़ी थी जबकि दोनों का बेसिक कांसेप्ट एक ही था।

क्रमशः

No comments

Please Dont Enter any Spam Link