अतीत यात्रा

 


भारत का इतिहास और आर्य

योरप/मिडिल ईस्ट के इतिहास सम्बंधी किसी भी पोस्ट पर कई लोग भारतीय इतिहास पर मेरी राय पूछते नजर आते हैं और मेरी समझ में नहीं आता कि मैं उसपे क्या नजरिया रखूं क्योंकि यहां ढाई हजार साल पहले का कोई ठीक-ठाक इतिहास समझ में ही नहीं आता, इसके नाम पर जो रामायण, महाभारत, उपनिषद, पुराण लिखे हैं वे कपोल कल्पनाओं पर आधारित वास्तविकता से एकदम परे लगते हैं लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं होना चाहिये कि इतिहास होगा ही नहीं या लोग बस ढाई-तीन हजार साल पहले ही आ कर बसे होंगे। आखिर वह इतिहास मेरा भी तो हुआ, भले कालांतर में मेरे किसी पूर्वज ने इस्लाम स्वीकार कर लिया होगा लेकिन हूँ तो इसी भूभाग का.. तो जानने समझने की कोशिश तो करनी ही चाहिये।

यह सोच कर ही आजकल अतीत की छानबीन में लगा हुआ हूँ और बहुत कुछ ऐसा नजर आ रहा है जिसकी तरफ कभी ध्यान ही न दिया गया। आप योरप या उत्तरी अफ्रीका, या एशिया माइनर या फारस का इतिहास देखेंगे तो इनका एक सिलसिलेवार लिखित इतिहास मिलता है और वहां के नागरिक भी उसे जानते हैं लेकिन भारत का अतीत तलाशना चाहेंगे तो हवा हवाई किस्सों के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा, जिन पर भारतियों का ही एक बड़ा वर्ग यकीन नहीं करता। आखिर ऐसा क्यों है? इसकी एक वजह तो यही है कि इतिहास को देवी-देवता और चमत्कारों के सहारे ईश्वरीय बनाने के चक्कर में उसकी विश्वसनीयता ही संदिग्ध कर दी गयी।

और दूसरी सबसे बड़ी वजह आबादी का ताना-बाना है.. ग्लोब पर देख के समझना चाहें तो ऐसे समझिये कि इंसानी आबादी की शुरुआत भले अफ्रीका में कहीं हुई हो लेकिन मुख्यतः वह फली-फूली कैस्पियन/मेडेटेरेनियन से लेकर सिंध के बीच के मैदानी भूभाग पर और यहाँ उसके संगठित रूप सामने आये और बड़ी सभ्यतायें पनपीं और इस वजह से उनका इतिहास मानव क्रम-विकास में अपनी उल्लेखनीय जगह बना सका। जबकि इनके उलट इंसान आगे अमेरिका से ले कर चीन और धुर पूर्वी एशिया के द्वीपों तक पहुंचे, फले-फूले और छोटी-छोटी आबादियों में ढल के निरंतर विकास करते रहे लेकिन मुख्य आबादी से जुड़ाव न होने की वजह से उनका इतिहास कभी अपनी जगह बना ही न सका।

अब बाकी आबादियों में अमेरिका में अलग-अलग वक्त पर कुछ बड़ी सभ्यताओं ने अपनी जगह बनाई और लुप्त हो गईं, अफ्रीका में वे कोई बड़ी सभ्यता न बन सकीं और आज भी वे पिछड़ी ही हैं। मुख्य भूमि से लोग हर तरफ गये थे, जिनमें एक समूह हिंदुकुश की तरफ से एशिया की तरफ बढ़ा बसा था तो दूसरा भारत हो कर हिमालय के जरिये भी उधर गया और एक समूह समुद्र के किनारों के साथ भी आगे बढ़ता गया। चीन की तरफ बढ़ी बसी आबादी में भारत के मुकाबले कम विभाजन हुआ और वे भारत के मुकाबले जल्दी बड़े समाजों में ढले इसलिये उनके पास भी एक क्रमवार लिखित इतिहास मौजूद है।

जबकि भारत भी अफ्रीका की तरह ही एक वन क्षेत्र था और यहाँ मुख्य भूमि की तरह सभ्यता पनपने के आसार कम थे। यहां एक भयंकर समस्या यह थी कि उत्तर से दक्षिण तक समुद्री किनारे, नदियों किनारे, वन में, पहाड़ पे रहने वाली असंख्य छोटी-छोटी आबादियां निवास करती थीं जिन्हें बड़े समाजों के रूप में एकीकृत होने में हजारों साल लगे और यह विकास इतना धीमा हुआ कि नोट करने लायक तमाम जगह इसके बीच-बीच के सिरे ऐसे गायब हैं कि अनुमान के आधार पर ही आप कुछ लिख सकते हैं। फिर भी जो मोटा-मोटा समझ में आया कि यहां हर तरफ टाॅटेम जातियां मौजूद थीं (किसी एक विश्वास के सहारे पनपने वाला वर्ग.. आज वाली जाति नहीं) जिनमें असुर, यक्ष, गंधर्व, राक्षस, पिशाच, ऋछ, वानर, नाग, गरूण, द्रविण टाईप पहचान हुआ करती थी जिनके टाॅटेम ही कालांतर में भगवान बना कर स्थापित कर दिये गये।

मजे की बात यह है कि यह सिर्फ भारत तक सीमित नहीं थे बल्कि पूर्वी एशिया से लेकर भूमध्यसागर तक फैले थे और जमीन पर कोई राष्ट्र, राज्य, भूभाग जैसा बटवारा नहीं था। थोड़ा इतिहास का अध्ययन करने पर आपको मिस्र, फारस, भारत के प्राचीन विश्वासों, मान्यताओं और प्रतीकों में बहुतेरे साम्य मिल जायेंगे। और ऐसा भी नहीं था कि यह अपनी पहचान अलग बनाये रखते थे बल्कि शुरू में आपस में लड़ते थे, जीतने पर मर्दों को मार कर स्त्रियों को अपने समाज में शामिल कर लेते थे, बाद में उत्पादन क्षमता बढ़ाने के नाम पर मर्द दास बनाये जाने लगे.. इसी दास वर्ग को हजारों साल आगे जाकर शूद्र के रूप में चिन्हित किया गया। इसके सिवा समाजों के थोड़ा उन्नत होने पर आपस में मेल मिलाप भी होने लगे और एक वर्ग की स्त्री से दूसरे वर्ग के पुरुष बच्चे पैदा करने लगे। तब विवाह की खास मान्यता नहीं थी, न संभोग में पाप-पुण्य जैसा कुछ था, प्रजनन मुख्य था.. इस दोनों तरह के सम्मिश्रण/मेलमिलाप को अंतर्भुक्तिकरण कहा गया जिससे अलग-अलग जातियों में एक दूसरे के विश्वास, मान्यताएं, ईष्ट प्रवेश पाये।

आर्य कैस्पियन सागर के पास रहने वाला एक कबीला था जो गौरवर्णीय और घोड़े दौड़ाने वाला था। इसके लोग भी हर तरफ फैले, उन्होंने न सिर्फ भूमध्यसागर के आसपास की आबादी में अपनी पहुंच बनाई बल्कि फारस की तरफ से होते भारत तक आ बसे। इन्होंने आर्य-अनार्य के रूप में दो धड़े बनाये और आपस में दोनों तरफ ऐसी काॅकटेल बनी कि कुछ भी प्योर नहीं रह गया। सबमें दो से ज्यादा धड़े बने और हर धड़े में अलग-अलग जातियां भी थीं और समान जातियां भी थीं। इंद्र की तरफ के लोग देव कहलाये जबकि वह आर्य नहीं था, हां बाकियों में थे जबकि मनू के पीछे बसे लोग मानव कहलाये जिनमें खुद आर्य-अनार्य दोनों थे। उस वक्त विजित व्यक्ति, चाहे वह आर्य ही क्यों न हो, दास ही कहलाया और कालांतर में वही शूद्र भी हुआ।

आर्य की प्रमुख पहचान उनकी अग्निपूजा या यज्ञ था जिसमें पहले सब हिस्सा लेते थे लेकिन बाद में बंटवारा होने लगा। यज्ञ के पास जो संसद बनती थी उसका फैसला ही ब्रह्म होता था जो आगे ब्रह्मा के रूप में विराट पुरुष गढ़ दिया। इसमें जो हिस्सा लेते थे वह सब ऋषि, पुरोहित कहलाते थे जो आगे जा कर ब्राहमण कहलाये.. इन्होंने बाद में अपने बीच से ही कुछ लोगों को अलग किया जो बढ़ती आबादी और लड़ाइयों के बीच लड़ाके की भूमिका निभाते थे, इन्हें क्षत्र और आगे क्षत्रिय कहा गया जबकि बाकी जन-साधारण सब वैश्य थे और दास जानवर के समतुल्य होते थे, उस वक्त चौथा शूद्र वर्ण अस्तित्व में नहीं आया था लेकिन बाद में दासों को यही पहचान दी गयी। उस वक्त वर्ण ब्लडलाईन पर नहीं चलता था जिस वजह से बहुत से अनार्यों ने भी यज्ञ शुरू किया, ब्रह्म स्थापित हुए और आगे ब्राहमण कहलाये। लोगों को तब वर्ण बदल सकने की भी सुविधा थी तो कोई भी चीज फिक्स नहीं थी।

अब मुख्य बात.. मौजूदा उपलब्ध साक्ष्यों (दूसरे इतिहास को ले कर मौजूदा हिंदू ग्रंथों सहित) के आधार पर यह पता चलता है कि एक तो इंद्र, मनु, रावण, विश्वामित्र जैसे या पद थे या फिर एक नाम कई लोगों का हुआ था जो उस दौर में प्रचलित था कि बेटे बाप/दादा के नाम को धारण कर लेते थे, क्योंकि इनका जिक्र अलग-अलग काल में मिलता है। इस विसंगति को एडजस्ट करने के लिये कुछ चरित्र अमर बना लिये गये। जितने भी नाम आप सुनते हैं यह सब इंसान ही थे, जिन्हें कहीं पितृ पूजा या कहीं शक्ति पूजा के रूप में देवता बना लिया गया। यह पूरी दुनिया में हुआ था जहां राजा को देवता या देवताओं का प्रतिनिधि माना जाता था जो कालांतर में खुद देवता बन जाता था। कुछ ऐसी ताकतवर औरतों का भी इतिहास मौजूद है जिन्होंने अपने जीते जी खुद को देवी के रूप में स्थापित करवा लिया था।

एक चीज और कि अक्सर भारतीय जिन बातों को ले कर योरप या अरब को टार्गेट करते हैं, वे उस काल में पूरी दुनिया में समान रूप से प्रचलित थीं। मसलन लोगों पर हमले करना, मर्दों को मार कर औरतें जीत लेना, विजित धन/पशु/औरत को आपस में बांट लेना, ताकतवर का हरम बनाना, जानवर से लेकर इंसानों तक की बलि देना। जीवन का सुरा सुंदरी और जंग पर आधारित होना, भोजन में अनाज से ज्यादा मांस की भागीदारी होना.. यह सब उतना ही भारतीय है जितना योरोपीय और अरबी।

और हां.. ब्राह्मण हर वर्ग के लोग बने थे और दास भी हर वर्ग के लोग बनाये गये थे। आर्य पूरी दुनिया में फैले जरूर लेकिन यहूदियों की तरह नस्ली शुद्धता नहीं बरकरार रख सके और अब उनका मिश्रण तो पूरे भारत में मिल जायेगा लेकिन शुद्ध आर्य कहीं नहीं। हिटलर की ऐसी सोच जरूर थी लेकिन वह रियलिटी से ज्यादा उसका खब्त था।

क्रमशः

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