कास्मोलाॅजी 2
अपने से अलग आयाम की चीज़ों को हम क्यों नहीं समझ सकते?
पिछली पोस्ट में मैंने एक प्वाईंट लिखा था कि आदमी अपने देखे, सुने, जाने हुए यानि ज्ञात से बाहर की कल्पना भी नहीं कर सकता और यही वजह है कि ईश्वर हो या एलियन, इन्हें समझने के लिये इंसान अपनी इन्हीं कल्पनाओं को अप्लाई करता है और ईश्वर या एलियन, इंसान के ही प्रतिरूप नज़र आते हैं। यह एक तरह से सभी इंसानों पर लागू होता है लेकिन कुछ लोग इस बाउंड्री को तोड़ने में सक्षम भी होते हैं..
वे बहुत सी ऐसी चीज़ों की कल्पना कर सकते हैं जो सामान्य इंसान की क्षमता से परे हो। इस चीज को आप कुछ डिस्कवरी के प्रोग्राम्स या उन हालिवुड मूवीज से समझ सकते हैं जहां इस जानी पहचानी दुनिया से बाहर की चीजों या जीवन की कल्पना की गई है… मसलन स्टार वार्स सीरीज की फिल्में ले लीजिये या अवतार ले लीजिये।
इनकी कामयाबी का एक बड़ा कारण यही था कि यहां लेखक, निर्देशक ने किसी ईश्वर की तरह वे चीजें गढ़ी थीं, जो अस्तित्व नहीं रखतीं। हमने ऐसा कुछ पहली बार देखा, जाना और जिसने हमें रोमांचित किया। हां, आप कह सकते हैं कि भले उनमें तमाम चीजें हमारी जानी पहचानी दुनिया से एकदम अलग थीं...
लेकिन नियम उन पर भी वही अप्लाई किये गये जो हमारे लगभग जाने पहचाने ही हैं। मसलन अवतार का पेंडोरावासी हमसे बिलकुल अलग है लेकिन वह है हमारा ही प्रतिरूप— यानि दो-दो हाथ-पैर, कान आंख और मुंह वाला। ऐसा इसलिये भी था ताकि लोग उनसे कनेक्ट कर पायें, वर्ना एलियंस तो उन्होंने हर तरह के दिखा रखे हैं।
मैंने एक कहानी लिखी थी, मिरोव… जिसका बेसिक प्लाट इस यूनिवर्स के उस दूसरे हिस्से और उसमें मौजूद जीवन से सम्बंधित है जिसे हम डार्क मैटर वाला शैडो यूनिवर्स कहते हैं। किसी क्रियेटर की तरह ही मैंने भी यहां ज्ञात की बाउंड्री से बाहर जा कर उस पूरे ब्रह्मांड की कल्पना की थी, जो कहीं है ही नहीं, या है तो हमसे अछूता ही है।
अब यहां से थोड़ा ध्यान दे कर समझिये— हम जो कुछ भी इस विशाल-विकराल ब्रह्मांड में किसी भी सेंस या तकनीक से डिटेक्ट कर सकते हैं, उसे विजिबल मैटर कहते हैं और हैरानी की बात यह है कि यह बस चार पांच प्रतिशत ही है। बाकी क्या है, न हमें पता है और न हम उसे डिटेक्ट कर सकते हैं लेकिन पहचान के लिये हमने उसे एक नाम दे रखा है डार्क मैटर और डार्क एनर्जी।
कैसा हो कि असल ब्रह्मांड वही हो जिसमें हमारा ब्रह्मांड बस एक एनाॅमली भर हो। दोनों एक साथ एग्जिस्ट कर रहे हैं लेकिन एक दूसरे के लिये डिटेक्टेबल नहीं। और ऐसा भी जरूरी नहीं कि यह बस दो ही ब्रह्माण्ड हों, बल्कि एक के अंदर एक करके भी कई ब्रह्मांड हो सकते हैं जो एक दूसरे के लिये डिटेक्टेबल ही न हों।
क्यों? क्योंकि हर ब्रह्मांड की बनावट अलग होगी, उसका विजिबल मैटर बिलकुल अलग संरचना रखता होगा। हम जिस ब्रह्मांड से सम्बन्ध रखते हैं, उसी से कनेक्ट होते हैं— बाकी हमारे लिये कोई वजूद नहीं रखते। यह अलग-अलग ब्रह्मांड बनते और नष्ट भी होते रहते हो सकते हैं, जैसे हमारा अपना ब्रह्माण्ड एक दिन शुरू हुआ था और एक दिन खत्म भी हो जायेगा।
अब उस दूसरे या कहें कि मुख्य ब्रह्मांड में भी अलग-अलग तरह से जीवन हो सकता है.. उसकी बनावट हमारे देखे जाने ब्रह्मांड से बिलकुल अलग हो सकती है। मैंने मिरोव में उसी अलग तरह के, हमारी ज्ञात कल्पनाओं से बाहर निकल कर एक कल्पना की है और वहां के अलग-अलग न सिर्फ जीवन बल्कि तमाम तरह की चीजों की कल्पना की है।
अब यहां यह समझने वाली बात है कि उनसे जब हमारे इस ब्रह्मांड के लोगों का सम्पर्क होता है.. (बेशक किसी तकनीक के सहारे) तो वहां उन्हें ज्यादातर चीजें अपने हिसाब से या तो सिरे से समझ में ही नहीं आतीं या उनकी ज्ञात कल्पनाओं पर ही खरी उतरती हैं— जबकि वह सच नहीं होता।
कहानी में ही जब वह कुछ जानी पहचानी चीजों को समझने में धोखा खाते हैं तो उन्हें समझाया जाता है कि उनके दिमाग इस लिमिटेशन से बंधे हैं कि वे बस उन चीजों को ही समझ सकते हैं, जिन्हें उन्होंने पहले देखा या जाना है— जबकि वहां हर चीज उनके अपने ब्रह्मांड से अलग है, तो होता यह है कि जो भी चीज उनका दिमाग समझ नहीं पाता—
वहां वह अपनी जानी पहचानी कोई चीज फिट करके तस्वीर को मुकम्मल कर लेता है और उन्हें लगता है कि वे सामने मौजूद चीज को एकदम सही रूप में देख पा रहे हैं, जबकि हकीकत में कहीं वे सामने मौजूद चीज को उसके हकीकी रूप में या बस आधा अधूरा देख पा रहे होते हैं, या सिरे से गलत देख पा रहे होते हैं, जो उनका दिमाग उन्हें दिखा रहा होता है।
तो अज्ञात को देखने समझने में यह भी एक बड़ी मुश्किल है कि मान लीजिये हम एक बीस फुट के जीव को देख रहे हैं जो छिपकली के जैसा दिख रहा है, लेकिन हकीकत में वह कोई ऐसा जीव है, जो हमारे ज्ञान से परे है, दिमाग उसे समझने में असमर्थ है— तो ऐसा तो नहीं है कि आपका दिमाग, आँखों द्वारा देखी छवि को डिकोड ही नहीं करेगा और आप कुछ देख नहीं पायेंगे, बल्कि आपका दिमाग उसे उस देखी भाली इमेज में ढाल देगा, जिससे वह सबसे ज्यादा मिलती जुलती लगेगी।
अब आपको जो दिख रहा है, वह बस आपके दिमाग की अपनी बनाई एक इमेज भर है, हकीकत में वह बिलकुल वैसी नहीं है। ज्ञात की कल्पनाओं से इतर हम जब भी कोई चीज या जीव देखेंगे, वहां हमारा दिमाग ठीक वैसा ही धोखा देगा, जैसा अत्याधिक नशे में रस्सी के सांप दिखने में होता है।
हमारा दिमाग अपनी क्षमता भर ही काम कर सकता है.. और आंखों देखे सभी ऑब्जेक्ट्स को उसकी एक्चुअल इमेज में देख पाना इसके लिये बस तभी तक संभव हो, जब तक वह चीज ज्ञात की बाउंड्री के अंदर की हो। बाकी दूसरी अहम चीज यह भी है कि हम एक ऐसे मैट्रिक्स में फंसे जीव हैं, जहां यूनिवर्स रूपी कई जाल एक दूसरे से हैं तो उलझे—
लेकिन वे चूंकि अलग-अलग मटेरियल से बने हुए हैं, और हम पर सिर्फ अपने मटेरियल के जाल को देख पाने की बंदिश लागू है तो हमारे लिये बस एक जाल ही विजिबल है और हम उसे ही अकेला जाल समझ रहे हैं। तीसरी अहम बात कि कोई भी जाल स्थाई नहीं है— सभी आदि और अंत की शर्त से बंधे बन भी रहे हैं और खत्म भी हो रहे हैं। हालांकि यह थ्योरी भर है लेकिन ऐसी संभावना तो है ही।
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