गॉड्स एग्जिस्टेंस 3
स्पेस, टाइम और मैटर ही ब्रह्माण्ड का मूल है
जिस यूनिवर्स/सिस्टम या सृष्टि को हम जानते हैं वह तीन चीजों पर डिपेंड है— हाईट, विथ, डेप्थ के रूप में स्पेस— पास्ट, प्रेजेंट और फ्यूचर के रूप में टाईम और सालिड, लिक्विड और गैस के रूप में मैटर। अब अगर इन चीजों से उसने इंसान समेत समूचे सिस्टम को बनाया है तो यह तय है कि हम या यह सृष्टि इन्हीं तीन चीजों पर डिपेंड है और फिजिक्स के सारे लॉज हमें इनसे बंधा होने की पुष्टि करते हैं। अगर रचना के रूप में हम टाईम, स्पेस और मैटर से बंधे हैं तो कम से कम हमें रचने वाला रचनाकार इनसे मुक्त होना चाहिये।
Outside of Universe |
उस हिसाब से अब इनमें से अगर हम 'स्पेस' की बात करें तो ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स कितना भी बड़ा क्यों न हो, इसे बनाने वाला इसके अंदर नहीं हो सकता। जैसे कंप्यूटर जैसा सुपर ऑब्जेक्ट बनाने वाला इसके भीतर नहीं हो सकता। यह पूरा सिस्टम थ्री डायमेंशनल है और इसके साथ एक पहलू यह भी है कि किसी डायमेंशन में रहने वाला जीव अपने से एक डायमेंशन कम में देख पाता है।
जैसे हम किसी एक प्वाइंट पर बैठ कर देखें तो दूर दिखती चीज अगर दाये बायें मूव करती है तो हम समझ लेंगे, ऊपर नीचे मूव करती है तो हम समझ लेंगे, लेकिन अगर वह हमारी तरफ आगे या पीछे हो रही है तो हम उसे सिर्फ एक इकलौती कंडीशन में समझ सकते हैं कि अगर वह हमारी तरफ आ रही है, तो क्षण-प्रतिक्षण बड़ी होती जायेगी और अगर हमसे दूर जा रही है तो क्षण-प्रतिक्षण छोटी होती जायेगी।
लेकिन एक पल के लिये मान लें कि कोई बड़ा ऑब्जेक्ट लगातार हमारी तरफ आते हुए छोटा होता जाये या कोई छोटा ऑब्जेक्ट हमसे दूर जाते हुए लगातार बड़ा होता जाये— तो क्या हमारा दिमाग उसे समझ पायेगा? जबकि इसी कंडीशन में मान लीजिये कोई ऊपर आस्मान में बैठ कर हमें और उस ऑब्जेक्ट को, दोनों को देख रहा है तो उसे यह चीज साफ-साफ समझ में आयेगी।
इसी तरह यह मान लीजिये कि इस स्पेस की लंबाई, चौड़ाई और गहराई को इसके बाहर रह कर इसे बनाने वाला स्पष्ट रूप से देख लेगा— जबकि इसके अंदर रह कर इसे समझने में हमारी बुद्धि फेल हो जायेगी। इसे यूँ भी समझ सकते हैं कि ब्राह्मांड की उम्र हम 13.7 अरब वर्ष इस आधार पर लगाते हैं कि इससे पुरानी रोशनी हम डिटेक्ट नहीं कर सके— लेकिन क्या गारंटी है कि इससे पुरानी रोशनी होगी भी नहीं।
मैटर की सॉलिड, लिक्विड और गैस के सिवा भी कोई फॉर्म हो सकती है
अब आइये मैटर पे— हम मैटर की तीन ही फॉर्म जानते हैं, सॉलिड, लिक्विड और गैस के रूप में... क्योंकि हमारे आसपास यही अवलेबल हैं लेकिन जिसने इन एलीमेंट्स से यह जटिल रचना की है, उसके बारे में यह दावा कैसे किया जा सकता है कि वह भी इन्हीं में से किसी एक मटेरियल से बना है। जब इस सिस्टम से बाहर का हम कुछ जानते ही नहीं तो कोई भी अंदाजा लगाना बेकार ही है— लेकिन चूँकि हम एक संभावना पर विचार कर रहे हैं तो 'सपोज' कर लेते हैं कि वह गैस, लिक्विड या सॉलिड से इतर किसी और मटेरियल से बना है या तीनों के ही किसी यूनीक संयोजन से बना है।
Concept of Energy |
ऐसी स्थिति में एक संभावना यह भी पैदा होती है कि जितना बड़ा यह यूनिवर्स है— उस हिसाब से इसे बनाने वाला खुद इतना बड़ा न भी हो तो भी इसके आसपास तो अपना साइज और वजन रखता ही होगा। यहां थ्योरी बनती है यूनिवर्स के तीसरे पिलर 'टाईम' की। जैसा कि हमें पता है कि टाईम एब्सोल्यूट नहीं है और मॉस की वजह से बनी ग्रेविटी जितनी ज्यादा होगी, वक्त उतना ही धीमा गुजरेगा। यानि इस पूरे यूनिवर्स में सबका टाईम एक सरीखा नहीं गुजरता बल्कि सबका टाईम अलग-अलग गुजरता है।
इसे छोटे और थोड़े अलग उदाहरण से आप दो चार घंटे के जीवन वाले जीवाणु, या दो चार दिन के जीवन वाले मच्छर जैसे कीट के जीवन चक्र से समझ सकते हैं— जितने वक्त में उनका पूरा जीवन गुजर जाता है, हमारे आपके कुछ घंटे या कुछ दिन गुजरते हैं। अगर हम यूनिवर्स के बाहर इसी साईज के ईश्वर के एग्जिस्टेंस को स्वीकारते हैं तो उसे वह मॉस और ग्रेविटी भी देनी पड़ेगी जहां वक्त या तो पलक झपकने भर में लाखों साल गुजरने बराबर होगा या फिर लगभग थमा हुआ होगा।
वह हमारे टाईम के प्रभाव से मुक्त होगा, यह तय है— और हम जो साठ-सत्तर साल के जीवन में करोड़ों अरबों साल का सफर सोच कर भी ऊब जाते हैं— असल में यह शायद दो चार दिन या दो चार हफ्तों का खेल भर हो। ईश्वर को स्वीकार्यता देने में सबसे बड़ी बाधा यही है कि अगर इंसान जैसी सुप्रीम स्पीसीज, फिर चाहे वह कई दूसरे प्लेनेट्स पर भी क्यों न हो... अगर इस रचना का प्रमुख कारण है तो उसका अस्तित्व मात्र कुछ लाख साल ही है, जबकि इसी प्लेनेट को बने चार अरब और इस यूनिवर्स को बने लगभग चौदह अरब साल हो गये...
यहां यह लंबा 'निर्जन वक्त' सबसे बड़ी बाधा है— जिसे अगर हम उस बाहरी शक्ति के हिसाब से 'ठहरे' या 'पलक झपकते' वक्त के बराबर रखें तो यह चीज समझी जा सकती है कि ऐसा क्यों है। आखिर गर्म खौलती चाय भी हम बर्तन से निकाल कर तत्काल नहीं पी लेते, बल्कि उसे पीने के लिये 'सही स्थिति' बनने का इंतजार करते हैं कि इतनी 'गर्म' न हो कि मुंह जल जाये और इतनी 'ठंडी' भी न हो जाये कि स्वाद ही खो बैठे।
ईश्वर का जन्म और मृत्यु
फिर भी हम टाईम, स्पेस और मैटर के बंधन से मुक्त करके उसके अस्तित्व को स्वीकार्यता देते हैं तो भी कुछ चीजों को हमें मान्यता और देनी होगी। पहला यह कि जो नियम यूनिवर्स के अंदर लागू होता है कि बिना क्रियेटर कोई चीज क्रियेट नहीं हो सकती— वह नियम उस पर भी लागू होगा। उसका 'कोई नहीं है' कहना किसी अनाथ पृथ्वीवासी के समतुल्य तो हो सकता है, जिसके अपने परिवार में कोई न हो, लेकिन इस बात से नकार नहीं हो सकता कि दूसरे पृथ्वीवासियों की तरह उसकी दुनिया में भी उसके जैसे लोग नहीं हैं। अब चूँकि जो चीज अस्तित्व में आई है, उसका कभी न कभी तो अंत होगा ही— वह खुद भी इस नियम से मुक्त नहीं हो सकता।
दूसरी बात कि हम इस यूनिवर्स के अंदर भौतिकी के उन नियमों से बंधे हैं जो उसने तय किये हैं— मसलन हमारी दुनिया में कोई भी मास न होने के कारण रोशनी के कण फोटॉन्स से तेज (लगभग तीन लाख किलोमीटर पर सेकेंड) कोई भी चीज नहीं चल सकती। ठीक इसी तरह उसकी दुनिया के नियमों से वह भी बंधा होगा क्योंकि बिना नियमों के कोई भी दुनिया स्टेबल नहीं रह सकती। ऐसे में यह दावा कि वह सर्वशक्तिमान है, उसकी पॉवर इनफिनिट है और सबकुछ कर सकने में समर्थ है— बेमानी ही है।
Outsider Maker |
बहरहाल अगर हम ईश्वर को इस रूप में डिफाईन कर लेते हैं तो आगे यह सवाल खड़ा होता है कि उसने यह सब आखिर रचा क्यों? क्या जरूरत थी उसे इतने पेचीदा सिस्टम को बनाने की। एक क्रियेटर के तौर पर हम नावल लिखते हैं, फिल्म बनाते हैं या वीडियो/कंप्यूटर गेम या कोई सिमूलेशन प्रोग्राम बनाते हैं तो उसमें जीवन का गढ़न हम खुद करते हैं— उनके लिये अनुकूल या विपरीत परिस्थितियों को हम क्रियेट करते हैं। इसकी एक वजह होती है... हम दूसरों का मनोरंजन करना चाहते हैं उसके माध्यम से या फिर किसी तरह का एक्सपेरिमेंट। ऐसे ही यह यूनिवर्सल प्रोग्राम बनाने के पीछे खुदा का क्या मकसद हो सकता है?
ईश्वर ने दुनिया क्यों बनायीं
किसी आस्तिक के पास इसका इकलौता जवाब होता है कि यह दुनिया (संपूर्ण सृष्टि) उसने हमारे लिये बनाई है और वह चाहता है कि हम उसके बताये रास्ते पर चलें और उसकी इबादत करें— यह सबसे फनी जवाब होता है। आपको नहीं लगा? वेल— थोड़ी देर के लिये खुद को क्रियेटर की जगह रख लीजिये और सोचिये कि आप कहानी लिखते हैं, फिल्म बनाते हैं जहां किरदार आपकी इच्छा से सबकुछ एक्ट करेंगे या कैरेक्टर्स को आर्टिफिशल इंटेलिजेंस दे कर कोई कंप्यूटर गेम बनाते हैं जहां जो कुछ भी हो वह नावल या फिल्म की तरह तयशुदा न हो...
और अब कल्पना कीजिये कि आप के द्वारा आपरेट या स्वचलित पात्र बस आपकी मर्जी से एक्ट कर रहे हैं, आपकी खुशामद करने में लगे हैं और दिन रात आपका स्तुतिगान या चरणवंदना में लगे हैं— तो क्या फील होगा आपको? आपकी बुद्धि इस चीज को स्वीकार कर पायेगी कि मेरी कहानी का हर किरदार बस मेरे स्तुतिगान में लगा है और इस स्तुतिगान को सुनने के लिये ही मैंने इस कहानी को लिखा है या इस कंप्यूटर गेम को डिजाईन किया है?
अब सवाल उठता है कि चलिये मान लिया कोई ईश्वर है, और उसी ने यह सब बनाया है लेकिन आखिर क्यों? क्या मकसद है इसका?
Unknown God |
इस रचना के मकसद को समझने के लिये अगर इस पहलू पर गौर करें कि असल में यह सिस्टम है क्या तो शायद मकसद को समझने में आसानी हो। यह पूरा यूनिवर्सल सिस्टम, या जो भी हम देखते, सुनते, समझते हैं— इसके साथ तीन संभावनायें जोड़ी जाती हैं। पहली यह कि या तो यह सब हकीकत में है, या फिर आधी हकीकत और आधा इल्यूजन है और या फिर यह पूरा का पूरा सिमूलेटिंग प्रोग्राम यानि काल्पनिक दुनिया है, जिसमें हम बस कंप्यूटर गेम के कैरेक्टर्स की तरह एक्ट कर रहे हैं।
Written by Ashfaq Ahmad
Post a Comment