ग्रेविटी
ग्रेविटी क्या है
टाईम के बाद यह भी एक बहुत कांपलीकेटेड चीज है जिसे एक आम इंसान के लिये समझ पाना मुश्किल होता है। ज्यादातर लोग इसे सिर्फ इस हद तक समझ पाते हैं कि हर पिंड में (उदाहरणार्थ: पृथ्वी) एक चुंबकीय शक्ति होती है जो अपने आसपास की चीजों को अपने से बांध कर रखती है, यह कम या ज्यादा भी हो सकती है, जैसे पृथ्वी की 9.8 समथिंग है तो जूपिटर की 24.79 है, यह एक्चुअल में एक्सिलरेशन रेट होता है और इसे मीटर पर स्क्वायर सेकेंड से मापा जाता है। यूनिवर्स में हर वह ऑब्जेक्ट जो कुछ न कुछ माॅस रखता है, उसमें ग्रेविटी होती है और हर भारी ऑब्जेक्ट अपने से हल्के ऑब्जेक्ट को अपनी तरफ कम या ज्यादा गति से खींचता है।
आम धारणा के मुताबिक़ यह ब्रह्मांड की चार फंडामेंटल फोर्सेज में से एक है लेकिन अब इस धारणा को चुनौती मिलने लगी है और हो सकता है कि अगले एक दो दशक में इसे पैदा की जा सकने वाली फोर्स के रूप में स्थापित कर दिया जाये जो किसी तरह की एन्ट्राॅपी के अगेंस्ट पैदा होती है। न्यूटन को इसकी पहचान के जनक के रूप में जरूर जाता है लेकिन सही मायने में इसे आइंस्टाइन ने ही एक हद तक पूर्णता प्रदान की थी। यह न सिर्फ स्पेस को इफेक्ट करती है, बल्कि टाईम पर भी सीधा असर डालती है। मतलब किसी पिंड की ग्रेविटी पृथ्वी से सौ गुनी हो तो पृथ्वी के मुकाबले सौ गुना ज्यादा आकर्षण पैदा करेगी और इसकी वजह से आसपास का चेंज बेहद शिथिल गति से सम्पन्न होगा, जिसे सामान्य भाषा में हम कह सकते हैं कि पृथ्वी के मुकाबले वहां वक्त बेहद धीमा होगा।
अब यह बनती कैसे है.. इसका मुख्य आधार है डेंसिटी यानि घनत्व, यह कैसे तय होता है? यह तय होता है वाल्यूम और माॅस से। यानि किसी वाॅल्यूम में कितना माॅस है, उससे डेंसिटी तय होगी। उदाहरणार्थ, एक क्रिकेट स्टेडियम में बाईस खिलाड़ी खेल रहे हैं और दूसरे क्रिकेट स्टेडियम में भरे हुए ग्राउंड में कोई राॅक कंसर्ट हो रहा है, यहाँ स्टेडियम वाॅल्यूम है और वहां मौजूद लोग माॅस.. तो एक ऑब्जेक्ट के तौर पर खेल वाले स्टेडियम की डेंसिटी कम होगी और शो वाले स्टेडियम की डेंसिटी बहुत ज्यादा होगी। ज्यादा डेंस स्टेडियम ज्यादा ग्रेविटी भी पैदा करेगा। किसी पिंड को वाॅल्यूम मानेंगे तो उसे मनाने वाले मैटर या एटम्स को माॅस।
मॉस ग्रेविटी का सबसे अहम पहलू है
इसे पानी के जरिये समझ सकते हैं, एक किलो का बांट लीजिये और एक किलो वजन की कोई लकड़ी, दोनों को पानी में डालिये। समान वजन होते हुए भी लकड़ी तैर जायेगी और बांट डूब जायेगा.. क्यों? क्योंकि डेंसिटी मैटर करती है, बांट यानि कम जगह में ज्यादा एटम्स और लकड़ी यानि ज्यादा जगह में कम एटम्स। दस लोगों के खड़े हो सकने लायक कमरे में मात्र चार लोग खड़े होना और उसी कमरे में सौ लोगों को घुसा देना.. यह माॅडल है डेंसिटी का। यानि अगर आप एक विशाल समुद्र का प्रबंध कर सकें तो अपने सोलर सिस्टम के दूसरे सबसे बड़े ग्रह शनि को भी उसमें तैरा सकते हैं क्योंकि शनि की डेंसिटी (0.687 ग्राम पर क्यूबिक सेंटीमीटर) पानी से कम है।
पानी की डेंसिटी एक ग्राम पर क्यूबिक सेंटीमीटर होती है, यानि एक सेंटीमीटर के क्यूब में आप जितना पानी भरेंगे वह एक ग्राम ही होगा। पृथ्वी पर सबसे डेंस मटेरियल ऑस्मियम है जो लोहे से भी तीन गुना भारी होता है यानि एक ही साईज शेप के आप ऑस्मियम और आइरन के एक किलो के बांट बनायें तो ऑस्मियम के एक बांट के बराबर वजन पाने के लिये लोहे के वैसे ही तीन बांट लगेंगे। अब यूनिवर्स के हिसाब से देखें तो सबसे डेंसर ऑब्जेक्ट वाईट ड्वार्फ स्टार, न्यूट्रान स्टार और ब्लैकहोल होते हैं जो किसी तारे के मरने पर बनते हैं।
सूर्य के आकार का कोई तारा जब न्युक्लीअर फ्यूजन के खत्म होने पर मरता है तो वह अपने अंदर के सभी एटम्स को ग्रेविटी की वजह से अंदर ही समेटना शुरू कर देता है, कोई भी परमाणु अंदर से नाइंटी नाईन+ पर्सेंट खाली होता है जिसके अंदर का खालीपन उस कंप्रेसन की अवस्था में खत्म होने लगता है और अंदर मौजूद प्रोटान, न्यूट्रान और इलेक्ट्रान और पास होने लगते हैं। इससे तारे का वाल्यूम बेहद कम हो जाता है और माॅस वही रहता है जिससे उसकी ग्रेविटी बढ़ जाती है। इसे ही वाईट ड्वार्फ स्टार कहते हैं जबकि अपने सूर्य से बीस गुना भारी तारा जब अपनी कोर पर कोलैप्स हो कर अंतिम हद तक कंप्रेस्ड हो कर सुपरनोवा विस्फोट करता है तो संभावना इस बात की रहती है कि बीस से तीस गुना भारी तक भारी है तो न्युट्रान स्टार बनेगा और उससे ज्यादा माॅस वाला हुआ तो ब्लैकहोल बन जायेगा।
अब इन न्यूट्रान स्टार्स की डेंसिटी इतनी होती है कि एक चम्मच मैटर भी अगर किसी प्लेनेट पर गिरे तो सुराख करता निकल जायेगा यानि एक चम्मच मैटर का वजन भी कई खरब किलो होगा। पृथ्वी के सबसे पास देखें तो PSR J0108-1431 नाम का न्युट्रान स्टार है जिसका डायमीटर 25-20 किलोमीटर ही है लेकिन इसकी डेंसिटी 1000 खरब ग्राम पर क्यूबिक सेंटीमीटर है। अगर इसे उठा कर हम अपने सोलर सिस्टम में रख दें तो तुरंत पूरे सोलर सिस्टम को खा जायेगा, सूर्य तक इसके ग्रेविटेशनल पुल से नहीं बच सकता। इससे ज्यादा डेंस बस ब्लैकहोल ही होता है जिसमें सारा माॅस एक सिंगुलैरिटी पर इकट्ठा होता है जिसका कोई वाॅल्यूम ही नहीं होता, इसलिये यह ब्रह्मांड की सबसे डेंसर, सबसे मैसिव चीज होती है।
वैसे यूनिवर्स की डेंसिटी क्या है जो यहाँ कोई ग्रेविटी ही नहीं और चीजें बस तैर रही हैं.. इतनी कम कि आप हैरान रह जायेंगे। इस यूनिवर्स का जो माॅस (सभी प्रकार के पिंड) है उसके हिसाब से जितना आकार (वाॅल्यूम) है वह ठीक ऐसा है जैसा पचास हजार की क्षमता वाले स्टेडियम में मात्र चार दर्शक बैठे हों। यानि एक सेंटीमीटर की क्यूब में आप यूनिवर्स लेंगे तो मात्र पांच एटम आयेंगे जबकि उतने ही क्यूब में लिये पानी में टेन टु द पाॅवर ट्वेंटी थ्री ( एक के बाद तेईस जीरो) एटम्स होते हैं, यानि शुद्ध भाषा में खरबों एटम्स।
ग्रेविटी के कम या ज्यादा होने का हम पे क्या असर पड़ेगा
इसका आपके लिये क्या महत्व है? इसे तीन तरह से समझ सकते हैं कि किसी न्यूट्रान तारे जैसे डेंस ऑब्जेक्ट की तरफ आप जाते हैं तो इसकी जद में आते ही यह आपको अविश्वसनीय गति से अपनी ओर खींचेगा, और लैंड से पहले ही आपके परखच्चे उड़ा देगा और अगर किसी सुरक्षित टेक्निक से इसके सर्फेस पर लैंड भी कर जाते हैं तो तत्काल जमीन से ऐसे चिपक जायेंगे जैसे आपके ऊपर सौ हाथी लाद दिये गये हों। आपके एटम्स टूट जायेंगे और बिना किसी दिखने वाले दबाव के ही आप पापड़ की तरह जमीन से चिपक जायेंगे। इसका यह मतलब भी होता है कि किसी जूपिटर जैसे ज्यादा ग्रेविटी वाले प्लेनेट पर भी लैंड होते ही आपके परखच्चे उड़ जायेंगे।
और अगर प्लेनेट की ग्रेविटी हमारे आसपास हो तो? किसी कम ग्रेविटी वाले सर्फेस पर आप का वजन बहुत कम हो जायेगा, संतुलन बनाने में मुश्किल होगी, चलने के बजाय जंप करेंगे तो देर सवेर इवाॅल्यूशन होगा और दुम उग सकती है तथा वजन बढ़ाने के चक्कर में साईज भी बढ़ जायेगा और उम्र और एबिलिटी भी... थोड़ी ज्यादा ग्रेविटी वाले प्लेनेट पर आपका वजन बढ़ जायेगा, खड़े होना त्यागना पड़ेगा और इवाॅल्यूशन की सूरत में अगली नस्लें चौपाये के रूप में पनपेंगी जो जमीन के नजदीक रहें, या रेंगने वाली प्रजाति के रूप में भी इवाॅल्व हो सकते हैं।
एक सस्ते साइंटिस्ट वाले अंदाज में समझना चाहते हैं तो एक साईज के दो डिब्बे लीजिये, नाम रखिये लोल, लाफ.. अब प्लास्टिक बाॅल्स से उन्हें भरिये। एक में ऐसे ही और दूसरे में बाॅल्स फोड़ कर, किसी हथौड़े से क्रश्ड कर के। आप पायेंगे कि दोनों डिब्बे एक जैसे और समान रूप से भरे हैं लेकिन लोल में दस ही बाॅल्स आ पाईं जबकि लाफ में सौ से ज्यादा और लोल के मुकाबले लाफ का वजन काफी बढ़ गया। यही डेंसिटी है.. लाफ का माॅस ज्यादा है तो वह ज्यादा ग्रेविटी पैदा करेगा जबकि लोल की ग्रेविटी काफी कम होगी।
यह ग्रेविटी स्पेस या टाईम पे कैसे असर डालती है, इसे सस्ते माॅडल से समझने के लिये एक चादर हवा में तानिये, तीन अलग जगहों पर प्लास्टिक बाॅल, लेदर बाॅल और एक लोहे की बाॅल डालिये। आप देखेंगे कि सभी बाॅल्स चादर में अलग-अलग गहराई के गड्ढे बना रही हैं। अब छर्रों के आकार की ढेरों गोलियां पूरी चादर पर बिखेर दीजिये.. प्लास्टिक बाॅल के पास सबसे कम गोलियां इकठ्ठा होंगी और लोहे की बाॅल के पास सबसे ज्यादा। यह स्पेस को प्रभावित करना है.. यानि यह हमारे सोलर सिस्टम में जूपिटर जैसे मैसिव प्लेनेट के होने जैसा है जो स्पेस से आने वाले ज्यादातर आवारा पिंडों को अपने आकर्षण (ज्यादा ग्रेविटी) से अपनी ओर खींच लेता है और पृथ्वी को एक अदृश्य सुरक्षा कवच प्रदान करता है।
अब चादर को कंपन दीजिये या एक साईड से हवा कीजिये तो पायेंगे कि प्लास्टिक बाॅल के पास वाली गोलियां तत्काल और ज्यादा प्रभावित हुईं जबकि आइरन बाॅल के पास वाली गोलियां सबसे कम। क्यों? क्योंकि उसका आकर्षण बल ज्यादा स्ट्रांग है, वह अपने आसपास के वातावरण में होने वाले परिवर्तन को लगभग थामे हुए है। यह परिवर्तन समय है जो पिंड के आसपास मौजूद वातावरण में होने वाले परिवर्तन की गति के हिसाब से कहीं तेज चल रहा है तो कहीं धीमा और इस तरह से ग्रेविटी समय को भी प्रभावित कर रही है। किसी ब्लैकहोल के आसपास समय इसीलिये बेहद धीमा होता है और अंदर लगभग थमा हुआ।
Written by Ashfaq Ahmad
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