गुमराह
गुमराह
क्षितिज पर पूरे प्रकाश के कारण गिने चुने सितारे ही बाकी रह गये हैं— चन्द्रमा की शीतल रश्मियों में नहाया वह समूचा जंगली क्षेत्र कुछ भयावह सा लग रहा है। हलकी-हलकी पुरवाई चल रही है। खामोश खड़े वृक्ष थोड़ी थोड़ी देर में हिल जाते हैं।
यह मैलानी के एक गावं कंचनखेड़ा से जुड़ा जंगल है। गावं की सीमा से सटे तमाम खेत हैं, जहां अधपके गेहूं की फसल खड़ी है— फागुन चल रहा है। हवा में थोड़ी ठंडक है… जंगल में झींगुरों, तिलचट्टों की आवाज़ सबसे ज्यादा गूँज रही है या फिर उन नेवले के बच्चों की, जो एक खेत में खेल रहे हैं।
गावं वालों ने खेत की सुरक्षा के लिये जंगल की ओर बबूल के कांटों की लम्बी बाड़ लगा रखी है, किन्तु सांभरों, चीतलों ने उसमे जगह जगह छेद कर लिये हैं और रात होते ही वह अपना रुख खेत की ओर कर लेते हैं। आधी रात के इस समय खेतों में कई चीतलें मौजूद हैं, जो गेहूं की हरी पत्तियां चुनने में जुटी हैं। एक ओर मोटी गर्दन और बारह सींगों वाला झाँक भी खामोश खड़ा है। वह हवा से बू लेने की कोशिश कर रहा है, या अपने कानों से सुनने की— कहा नहीं जा सकता।
बाड़ से दूर एक बरगद के वृक्ष के नीचे करौंदे की झाड़ी के पास बाघ का एक जोड़ा खामोश बैठा उसी झाँक की वापसी का इंतज़ार कर रहा है…हालाँकि जंगल के इस हिस्से में कांकर और पांड़े बहुतायत रहते हैं, लेकिन आज उन्हें शिकार नहीं मिला है। खेत के बीच खड़ा झाँक कान लगाये है… पतझड़ का समय है, ज़मीन सूखी पत्तियों से अटी पड़ी है। उसे उन पत्तियों की चरमराहट सुननी है पर क्या मज़ाल कि बाघों ने पत्तियों को ज़रा भी चरमराने दिया हो।
तभी इस प्राकृतिक वातावरण में एक कृत्रिम आवाज़ गूंजती है… सभी चौंक जाते है। झाँक के कान इधर उधर होते हैं… चीतलें खामोश पड़ जाती हैं। दोनों बाघ खड़े हो जाते हैं। फिर एक चीतल कूँ करती हैं… साथ ही दो तीन चीतलें और कूकती हैं। फिर सभी फुदकती हुई अपने रास्ते बढ़ लेती हैं। उनके पीछे झाँक भी खिसक लेता है, मगर अब उसका इंतज़ार करने वाले मांसभक्षी पहले ही जा चुके हैं।
वह कृत्रिम आवाज़ निरंतर तेज़ होती जा रही है।
यह एक मोटर साइकिल है, जिस पर एक युवक सवार है। मोटर साइकिल जंगल में घुसते कच्चे रास्ते पर बढ़ रही है। खेत ख़त्म हो जाते हैं… साल के पेड़ों का जंगल शुरू हो जाता है। करीब डेढ़ फर्लांग आगे एक नदी गुज़रती है, जिस पर लकड़ियों का एक पुल बना हुआ है। सवार उसी पुल के सिरे पर मोटर साइकिल रोकता है और वहीँ बैठ कर सिगरेट पीने लगता है।
उसका नाम यूँ तो अंकित यादव था लेकिन दुनिया भर में उसे लल्लू के नाम से जाना जाता था। वह जगदीशपुर, अमेठी का रहने वाला था— लेकिन लखनऊ में रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था और हकीकत यह थी कि वह उस पीढ़ी का झंडाबरदार था जो आजाद जिंदगी और सुविधाभोगी प्रवृत्ति के चलते कोई भी कदम उठाने से गुरेज नहीं करते, फिर चाहे वह कदम उनका भविष्य चौपट करे या उन्हें मौत के मुंह तक पहुंचा दे।
यह उसका तीसरा साल था लेकिन ऐसा नहीं था कि उसे लखनऊ की आज़ाद ज़िन्दगी ने बिगाड़ा हो, सिगरेट शराब, जुआ, लड़कीबाज़ी… यह सब आदतें उसे पहले ही थीं। हाँ, लखनऊ आ कर इतना ज़रूर हुआ था कि अब उसकी एक परमानेंट गर्लफ्रेंड बन गयी थी जो एक प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ती थी और यही हॉस्टल में रहती थी— मध्यमवर्गीय थी लेकिन सहेलियां अपनी औकात से बड़ी पाल रखी थीं और उसे हमेशा उनसे बराबरी करने के लिये ब्रांडेड कपड़े, मेकअप का सामान, सैमसंग नोट मोबाइल और वो भी 4G अनलिमिटेड डेटा के साथ चाहिये होता था और यह बड़े खर्चे पूरे करने के लिये उसने बॉयफ्रेंड के रूप में उसे पाल लिया था…बेचारा लल्लू, जो गांव में दबंग कहा जाता था, लखनऊ आकर उसके चक्कर में लल्लूराम हो गया था।
इतने पैसे दे-दे कर अब घरवालों ने भी हाथ खड़े कर दिये थे। सारे दोस्तों की उधारी इतनी चढ़ चुकी थी कि कोई पैसे देने को तैयार नहीं था और गर्लफ्रेंड थी कि कंगाली में उसके साथ लेटने को तो क्या बैठने को भी तैयार नहीं थी। ऐसे में उसके जैसे किरदार की अर्थव्यवस्था जब ऐसी बिगड़ जाती है तो गलत रास्ते का पता बताने वालों से यारी बनते देर नहीं लगती।
उसकी भी ऐसे ही कुछ लड़कों से बनने लगी थी जो गोमती नगर में चेन स्नेचिंग करते थे, उसने भी कुछ वारदातों में हिस्सेदारी की तो गर्लफ्रेंड उन पैसों का सदुपयोग करने वापस उसके पास लौट आई थी।
वो लोग पहले से कोई बड़ा हाथ मारने की प्लानिंग किये बैठे थे। अपनी आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र वह भी उनके प्लान में शामिल हो गया था। प्लान का पता तो उसे तब चला था जब वो गोमतीनगर में एक ऐसे घर में घुसे थे, जहां एक अकेली महिला ही मौजूद मिली… उसकी उम्मीद के खिलाफ उसके साथियों ने उस महिला को ठिकाने लगा दिया था। वह पहले कभी किसी क़त्ल में नहीं शामिल हुआ था और न ही उसका ऐसा कोई इरादा था लेकिन इस बार उसके माथे पर यह कलंक भी जुड़ गया था।
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Written By Ashfaq Ahmad
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