प्रोग्राम्ड यूनिवर्स 3
सिविलाइजेशन का गणित और संभावनायें
इसे पृथ्वी के हिसाब से समझिये— आपका घर अपने पड़ोसी प्राक्सिमा सेंटौरी सौर मंडल के प्लेनेट एक्स पर है— ऑफिस गैलेक्सी के किसी दूसरे छोर पर मौजूद प्लेनेट पर— शापिंग करनी है तो किसी और प्लेनेट पर, मनोरंजन करना है तो किसी और प्लेनेट पर। किसी प्लेनेट का वातावरण किसी खास सब्जी के उत्पादन के अनुकूल है तो उसकी खेती वहां हो रही।
किसी प्लेनेट का वातावरण किसी और तरह के फल, फूल या पौधे के लिये अनुकूल है तो उसकी खेती वहां हो रही। कोई प्लेनेट अपने अंदर किसी खनिज का भंडार समेटे है तो उससे संबंधित निर्माण वहां हो रहा। कहने का अर्थ यह कि अपनी गैलेक्सी समेत आसपास की गैलेक्सी के प्लेनेट भी आपके लिये वैसे ही होंगे जैसे अभी आपके लिये अपने शहर के मुहल्ले हैं।
Advanced Civilization |
अजीब लग रहा न सुन कर, पर यही भविष्य की हकीकत है। यकीन करने के लिये अतीत में पचास हजार साल पीछे चले जाइये और वहां जंगल में शिकार करते लोगों को इक्कीसवीं सदी के आविष्कार, साजो सामान और गैजेट्स के बारे में बताइये— जैसा भविष्य की कल्पना पर आपका मत अभी है, ठीक वैसा ही वर्तमान की कल्पना पर अतीत में आपका मत तब होगा— लेकिन अगर यह वर्तमान सच्चाई है तो वह भविष्य भी सच ही होगा। हां तब इंसान एक सब स्पिसीज रह जायेगा और खुद को साइबर्नेटिक्स या साइबोर्ग में तब्दील कर चुका होगा जो उस वक्त की जरूरत भी होगी यानि आधा इंसान आधी मशीन।
मतलब यह कि अलग-अलग सभी प्लेनेट्स के वातावरण में जो अंग सर्वाइव नहीं कर सकेंगे, उन्हें मशीनी अंगों से रिप्लेस कर लिया जायेगा। एक छोटी सी कल्पना कीजिये कि आप ऑक्सीजन पर डिपेंड प्राणी हैं और मंगल पर एक सांस नहीं ले सकते लेकिन कोई एसा सिस्टम आपके शरीर में फिट कर दिया जाये कि आपको सांस लेने की जरूरत ही न पड़े या कृत्रिम फेफड़े ऐसे बॉक्स के रूप में बना दिये जायें कि जरूरत भर ऑक्सीजन मौजूद रहे सिलेंडर की तरह— तब मंगल पर चलने फिरने में आपको कौन सी दिक्कत?
ठीक इसी तरह हजार साल पीछे अतीत में चल कर अपनी दुनिया का आकलन कीजिये— नदी, समंदर, जंगल, पेड़ पौधे, जीव जंतु सबकुछ आपको एक मकसद के साथ नजर आयेगा। कुछ भी ऐसा नहीं दिखेगा जो निरर्थक हो— लेकिन तेल और गैस, जो आज की सबसे बड़ी जरूरत है, वह तब बिलकुल निरर्थक थी— क्योंकि उसका कोई उपयोग उस वक्त के लोगों की समझ से परे था न उसे इस्तेमाल में लाने के साधन उनके पास थे। इसी नियम को आज पर अप्लाई कर लीजिये।
इस पूरे सिस्टम में एक भी ऐसी चीज नहीं जो बेकार हो, बल्कि अगर किसी चीज का उपयोग आपकी समझ में अभी नहीं आ रहा तो हजार साल बाद समझ में आयेगा, तेल गैस की तरह— या लाख साल के बाद आयेगा, लेकिन आयेगा जरूर। अपने सोलर सिस्टम को ही ले लीजिये— जितने प्लेनेट हैं सब किसी खनिज या गैस से भरे हुए हैं जो हमारे किसी न किसी काम का जरूर है। जरूरत हमारे वहां पंहुच कर उसे हासिल करने की है— और यकीन कीजिये, हम आज नहीं तो कल वहां जरूर पंहुचेंगे।
जब आप स्पेस में नजर डालेंगे तो खरबों ग्रह बेजान निर्जन नजर आयेंगे जिनमें से निन्यानवे प्रतिशत किसी भी तरह के जीवन से महरूम हैं क्योंकि वे अपने सोलर सिस्टम के उस गोल्डन रिंग से बाहर हैं जहां इंसान जैसी सुप्रीम स्पिसीज पनप सकें। तो वे क्यों हैं— जवाब यही है कि वे असल में हमारे (यूनिवर्स में इंसान जैसी दूसरी भी सुप्रीम स्पिसीज भी होंगी) लिये हैं— डिपेंड करता है कि कौन विकास के क्रम में टाईप टू, थ्री सिविलाइजेशन की कसौटी पर पहले पंहुचता है। या हो सकता है कि दूसरे हिस्सों में कोई पंहुच भी चुका हो। तो हर प्लेनेट का यही औचित्य है कि वह हमारे (सुप्रीम स्पिसीज) लिये है।
क्या इन प्लेनेट्स का उपभोग करने के लिये मानव अस्तित्व है?
और हम क्यों हैं— हम इसलिये हैं कि इनका उपभोग कर सकें। कुछ थ्योरी हैं जो बताती हैं कि इंसान पृथ्वी का मूल प्राणी नहीं— शायद वाकई न हो, क्योंकि इंसान को अगर सिर्फ पृथ्वी तक सीमित कर के देखेंगे तो वाकई उसका औचित्य समझ में नहीं आयेगा लेकिन उसे संपूर्ण यूनिवर्स के परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो उसका औचित्य समझ में आ जायेगा। आप सवाल कर सकते हैं कि इंसान ही क्यों? तो जवाब है कि इंसान नहीं— सुप्रीम स्पिसीज। इंसान सुप्रीम स्पिसीज की एक इकाई भर हो सकता है— यह स्पिसीज यूनिवर्स के दूसरे हिस्सों में अलग-अलग रूपों में हो सकती है।
Quantum Society |
निकोलई कार्दाशेव ने सिविलाइजेशन के तीन ही टाईप की अवधारणा दी थी लेकिन बाद में इसमें टाईप फोर और टाईप फाईव भी जुड़ गयीं। यहां पे एक चीज यह क्लियर कर दूँ कि यह अवधारणायें सिर्फ हम ह्यूमन्स को ले कर हों, यह जरूरी नहीं। यह किसी भी सुप्रीम स्पिसीज पर अप्लाई हो सकती हैं।
बहरहाल टाईप फोर सिविलाइजेशन यानि इंटरगैलेक्टिक सोसायटी वह सभ्यता होगी जिसकी पंहुच पूरे यूनिवर्स तक होगी। वे लगभग हर तारे की ऊर्जा पर नियंत्रण पा लेंगे और इतने सक्षम होंगे कि ब्लैक होल्स तक में बस्तियां बसा लेंगे। उन्हें प्रजनन की जरूरत न होगी... वे दूसरे तरीकों से अपनी आबादियां बढ़ाते पूरे यूनिवर्स पर अपना दबदबा बना लेंगे। वे स्पेस, टाईम, थर्मोडायनामिक्स के नियमों से मनचाहे खिलवाड़ करने में सक्षम होंगे।
अब इसका मतलब यह हर्गिज न निकालिये कि वे पृथ्वी वासियों की तरह एक इकाई होंगे बल्कि टाईप थ्री और टाईप फोर होंगे भी, तो उनके अलग-अलग अधिकार क्षेत्र वैसे ही अलग होंगे जैसे पहले कबीलों या राज्यों की, और अब देशों की सीमायें अपना अलग वजूद रखती हैं और यह कतई जरूरी नहीं कि तब वे भारत और पाकिस्तान की तरह आपस में लड़ नहीं रहे होंगे।
इनके सिवा एक कल्पना टाईप फाईव सिविलाइजेशन यानि क्वांटम सोसायटी की भी की जाती है जो उन्नति के उस दौर में पंहुच जायेगी— जिसे हम अगर शुद्ध भाषा में कहें तो ईश्वर ही कह सकते हैं। वे नॉलेज ऑफ एवरीथिंग के वाहक हो कर सभी यूनिवर्स को नियंत्रित कर सकेंगे और उन्हें किसी किस्म के सफर की जरूरत न होगी— वे पलक झपकते ही एक आयाम से दूसरे आयाम में ट्रांसफर हो सकेंगे। वस्तुतः सुपर स्ट्रिंग थ्योरी और एम थ्योरी जिन दस-ग्यारह आयाम की बात करती हैं, असल में हम इंसान उनमें से सिर्फ तीन आयाम में ही फिट होते हैं और उन पर नियंत्रण कर सकते हैं।
क्वांटम सोसायटी की अवधारणा
चौथा आयाम यानि टाईम हम रियलिटी में अनुभव तो कर सकते हैं लेकिन उस पर असरअंदाज नहीं हो सकते— जबकि उसके बाद के बाकी सारे आयाम हमारे लिये सिरे से बेकार हैं और असल में वे बस टाईप फोर और टाईप फाईव के लिये ही कारआमद हैं और क्वांटम सोसायटी ही असल में अकेली ऐसी सभ्यता हो सकती है जो सभी आयामों पर प्रभावी हो और पूरा नियंत्रण रखती हो...
Higher Dimensional Society |
अगर इस पूरे सिस्टम में अतीत में कोई भी ऐसी सभ्यता विकसित हुई है और क्वांटम सोसायटी की स्टेज तक पंहुची है तो भले यह पूरा सुपर यूनिवर्स एक सेल्फमेड प्रक्रिया के तहत बना हो और वे खुद किन्हीं ऐसे ही स्वघटित संयोजनों से जन्में हों लेकिन फिर आगे सबकुछ उनके ही नियंत्रण में हुआ है और ह्यूमन के तौर पर हम खुद उन्हीं की क्रियेशन हो सकते हैं।
इसे आसान भाषा में यूँ समझिये कि एक होती है फिल्म— जो एक निश्चित क्रम में आगे बढ़ती है, जिसमें आप कोई बदलाव नहीं कर सकते और एक होता है गेम— जिसमें आप बदलाव कर सकते हैं। आप का हीरो हार भी सकता है, जीत भी सकता है। यह दोनों उसी एक मोबाईल पर चलते हैं।
दोनों आपके मनोरंजन के लिये इंसान की बनाई क्रियेशन हैं और पूरी संभावना है कि आगे वे गेम भी बनाये जायेंगे जहां कैरेक्टर्स के पास खुद का दिमाग होगा और मिशन के तहत नायक और खलनायक दोनों जीतने की कोशिश करेंगे और कुछ भी निश्चित नहीं होगा बल्कि कभी नायक जीतेगा कभी खलनायक। यहां आपका मनोरंजन गेम की अनिश्चितता होगी— किसी क्रिकेट या फुटबाल मैच की तरह।
अब देखने में यह लगेगा कि वे आजाद सोच वाले कैरेक्टर हैं और अगर आप खुद को उनके दिमाग में ट्रांसफर कर पायें तो पायेंगे कि वह खुद को और अपनी दुनिया को सेल्फमेड समझ रहे हैं— लेकिन क्या वाकई ऐसा है?
दूसरा उदाहरण आप ऑटोड्राइविंग कार का ले सकते हैं जो हमारे भविष्य का परिवहन है जिसे हर संभावित एक्सीडेंट से बचने और जीपीएस इन्फार्मेशन के आधार पर ट्रैफिक से बच कर गंतव्य तक पंहुचने के लिये डिजाईन किया गया है। इसमें ड्राइवर की जरूरत नहीं— आप या सवारी बैठें न बैठें, इसके पास अपना दिमाग है।
बस लोकेशन सेट कर के ट्रिगर कर दीजिये— कार गंतव्य तक पंहुच जायेगी। अब बिना सवारी, ड्राइवर खाली चलती कार सड़कों पर दौड़ती अपने गंतव्य की ओर जा रही है और यह भ्रम दे रही है कि यह खुद से चल रही है— इसे कोई नहीं चला रहा, जबकि यह प्रोग्राम्ड डिवाईस है।
ब्रह्मांड भी प्रोग्राम्ड हो सकता है
ठीक इसी तरह हमारा यूनिवर्स हो सकता है। देखने में यह हमारे लिहाज से (क्योंकि इसके साईज के अकार्डिंग हम जीरों मतलब नथिंग हैं) बहुत बड़ा है लेकिन ढेर से मल्टीवर्स के बीच यह इतना विशाल ब्रह्मांड बस एक मामूली बबल भर भी हो सकता है जो दिखने में स्वनिर्मित और स्वचलित लग रहा है लेकिन कहीं से प्रोग्राम्ड किया गया हो सकता है।
Idea of Programmed Universe |
इस थ्योरी का बड़ा दिलचस्प पहलू यह है यहां आस्तिक और नास्तिक दोनों अपनी जगह एक प्वाइंट पर तो सही हैं कि बतौर नास्तिक यह (यूनिवर्स) स्वनिर्मित और स्वचलित है और बतौर आस्तिक कि कोई (ईश्वर) है जो सबकुछ चला रहा है— लेकिन बतौर आस्तिक इस एक प्वाइंट के सिवा आपकी बाकी कल्पनायें, धारणायें, मान्यतायें यहां गलत हो जाती हैं।
यानि हम और हमारे आसपास का ज्ञात स्पेस किसी वैज्ञानिक (सपोज आप खुद) की लैब का एक ग्लास केबिन जैसा तो हो सकता है जहां वह फफूंद उगा कर, या किसी तरह के बैक्टीरिया की कॉलोनी बसा कर कोई प्रयोग कर रहा है लेकिन इससे ज्यादा उस वैज्ञानिक का उन बैक्टीरिया में कोई इंट्रस्ट नहीं कि उसके एक्सपेरिमेंट के तहत वे बैक्टीरिया किस तरह का व्यवहार करते हैं...
लेकिन अब आप अपनी सोच को उन बैक्टीरिया के दिमाग में शिफ्ट कीजिये— जितनी देर में आपकी घड़ी का एक मिनट पूरा होता है, उनका जीवन चक्र पूरा हो जाता है... जिसमें वे पैदा हो कर बड़े होते हैं, कई बार भोजन करते हैं, मेटिंग करते हैं, प्रजनन करते हैं— और जितनी देर में आपके कुछ घंटे गुजरते हैं, उतनी देर में उनकी कई पीढ़ियां गुजर जाती हैं और उनके जीवन चक्र के हिसाब से काउंट करें तो आपके एक दिन में उनके सैकड़ों साल गुजर जाते हैं।
बैक्टीरिया जैसी इंसानी सोच
उनमें दो विचारधाराओं वाले बैक्टीरिया हैं— एक जो कहते हैं कि उन्हें खास किसी खुदा (एक वैज्ञानिक के तौर पर खुद को समझिये) ने क्रियेट किया है, यह दुनिया (वह ग्लास केबिन) उनके लिये बनाई गयी है और वह (यानि आप) हर पल उन पर अपनी नजर रखता है— (तीनों बातें सच हैं, क्योंकि अपने एक्सपेरिमेंट के तहत आपने उन्हें और उनकी दुनिया को बनाया और अपने कैमरों से उन पे चौबीसों घंटे नजर रखते हैं)...
'वह' उनके कर्मों का लेखा जोखा रखता है, अंत में प्रलय के दिन वह सब नष्ट कर देगा— (एक्सपेरिमेंट पूरा होने पर आप उस ग्लास केबिन को टर्मिनेट करके कचरे में फेंक देंगे), और फिर 'वह' उनके कर्मों के हिसाब से उन्हें जन्नत और दोजख देगा।
Bacterial Position of Human |
जबकि दूसरी विचारधारा के बैक्टीरिया उनसे असहमति रखते हुए यह मानते हैं कि उन्हें किसी ने नहीं बनाया, वे खुद बने हैं— उनके कर्मों का कोई लेखा जोखा नहीं, जो भी है वह सब यहीं हैं और प्रलय तो किसी प्राकृतिक आपदा के रूप में भी आ सकती है लेकिन न कोई हिसाब किताब होगा और न ही कहीं कोई जन्नत दोजख है— (यहां वे सही हैं), और अगर कोई रचियता है तो सामने क्यों नहीं आता?
यहां अगर किसी यंत्र से आप उनके इस कम्यूनिकेशन को समझ सकते तो निश्चित ही आपकी हंसी छूट जाती— लेकिन आप चाह कर भी उनकी यह ख्वाहिश कि 'कोई है तो सामने क्यों नहीं आता' को पूरा नहीं कर सकते। पहली बाधा तो 'आकार' और 'क्षमता' है क्योंकि वे आपके शरीर के एक रोयें का दसवां भाग भी हैं तो भी अपनी सीमित क्षमता के चलते आसपास के कुछ रोयों से ज्यादा वह आपको नहीं देख पायेंगे।
- इंसानी विकास, धर्मों की उत्पत्ति, यूनिवर्स और ईश्वर की संभावनाओं के बारे में जानिये
Written by Ashfaq Ahmad
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