पृथ्वी/EARTH
पृथ्वी की अंदरूनी बनावट कैसी है
किसी और ग्रह से ज्यादा आपको अपने ग्रह के बारे में जानना चाहिये। जब यह सोलर सिस्टम बन रहा था तब यह सभी राॅकी प्लेनेट्स लिक्विड आग के वह गोले थे जो अपने आसपास के मैटर को समेट कर अपना साईज बढ़ा रहे थे और अपनी कक्षा के सारे मलबे को अपने में समेट रहे थे।
उस वक्त अनगिनत छोटे बड़े ग्रह बने थे जिनमें तमाम दूसरे प्लेनेट्स ने खा लिये, कुछ को अपनी ग्रेविटी में बांध कर अपना उपग्रह बना लिया और कुछ छोटे प्लेनेट्स तो सोलर सिस्टम के बाहरी हिस्से में धकेल दिये गये।
उस वक्त मंगल ग्रह के साईज का एक थिया नाम का प्लेनेट पृथ्वी से टकराया था जो इसी में जज्ब हो गया और इस टक्कर से उछले मलबे से बाद में चांद का जन्म हुआ।
उस वक्त जो भी हैवी एलिमेंट्स पृथ्वी तक पहुंचे थे वह इसके अंदरूनी भाग की तरफ सरक गये और हल्के मैटर ऊपर आ गये.. साधारण भाषा में समझें तो जितना सोना आपको ऊपर मिला होगा, उससे कई गुने ज्यादा नीचे जज्ब हो गया।
इसकी बनावट को कुछ यूं समझिये कि जैसे चांद के आकार का एक सूरज है, जिसे चट्टानों और मिट्टी से ढक दिया गया है और उस ढकी परत के ऊपरी सिरे पर हम रहते हैं यानि आसान शब्दों में कहें तो हमारे कदमों के नीचे भी एक छोटा सूरज है। अब अगर इसे बीच से संतरे की तरह काटेंगे तो आपको यह मुख्य रूप से तीन हिस्सों में बंटी नजर आयेगी।
सबसे नीचे दो भागों में बंटा कोर है, जो इनर कोर है उसे लोहे की ठोस गेंद समझ लीजिये और जो आउटर कोर है उसे पिघला लोहा समझ लीजिये। यह लेयर ही वह सृजक है जो उस मैग्नेटिक फील्ड का निर्माण करती है जो हमें सूरज और बाहरी स्पेस से आने वाले घातक रेडियेशन से बचाती है, बिना इसके पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं था।
आपके दिमाग में सवाल आयेगा कि जब इतने ज्यादा तापमान के कारण आउटर कोर पिघली अवस्था में है तो इनर कोर साॅलिड स्टेट में कैसे है.. वह होता है पृथ्वी की सभी लेयर के अपने सेंटर की तरफ डाले गये प्रेशर की वजह से। खैर इससे ऊपर जो लेयर होती है वह मेंटल कहलाती है और इसमें भी आपको लेथेस्फियर और एस्थिनाॅस्फियर नाम के दो हिस्से मिलेंगे।
एस्थिनाॅस्फियर एक तरह का हाॅट लिक्विड और पृथ्वी का रीसाइक्लिंग सेंटर है जहाँ पुरानी चट्टानें गलती हैं और नयी बनती हैं। लेथेस्फियर इस पर तैरती रहती है, जिसमें एक तरह से राॅ मटेरियल स्टोर होता है।
और सबसे ऊपर जो तीसरी लेयर होती है वह क्रस्ट कहलाती है। इसके भी दो पार्ट्स होते हैं, एक ओशियानिक क्रस्ट जो बहुत पतली होती है। जिसे हम समुद्र तल के रूप में जानते हैं, यानि वह जगह जिसके ऊपर यह समुद्र हैं और दूसरा कांटीनेंटल क्रस्ट यानि सूखी जमीन वाला हिस्सा जिस पर समतल मैदान से ले कर पहाड़ तक होते हैं, यह काफी मोटी होती है।
हालांकि मेंटल में मौजूद मैग्मा (लावा समझ लीजिये) प्रेशर की वजह से ऐसे रास्ते फिर भी बनाये रखता है जहाँ से जब-तब रिलीज हो सके.. इन प्वाइंट्स को ज्वालामुखी कहते हैं। हालांकि इनके सिवा भी और कई प्वाइंट्स रहते हैं जहाँ से यह बाहर आता रहता है.. खास कर समुद्र तल में।
यह क्रस्ट एक पार्ट में नहीं है बल्कि कई अलग-अलग पार्ट्स में बंटा हुआ है और उन पार्ट्स को हम टेक्टोनिक प्लेट्स कहते हैं। इन प्लेट्स के ज्वाइंट्स अक्सर एक दूसरे में घुस रहे, एक दूसरे पर दबाव डालते ऊपर उठ रहे, दूसरी भारी प्लेट के आगे कमजोर पड़ के खुद ऊपर उठ रहे हो सकते हैं जैसे हिमालय बना और लगातार ऊंचा उठ रहा है।
प्लेट्स के इन ज्वाइंट्स या इनमें पड़ी दरार को साधारण भाषा में फाॅल्ट लाईंस कहते हैं। इनके अंदरूनी घर्षण की वजह से ही भूकम्प आते हैं।
कभी जब पूरी पृथ्वी पानी में डूब गयी थी तब एक छोटा सा हिस्सा ही बाहर था, और बाद में पानी के बर्फ के रूप में जमने और सी लेवल घटने के बाद अलग-अलग जगहों पर सूखी जमीन बाहर आईं। बाद में यह सभी हिस्से एक दूसरे से जुड़ कर एक सुपर कांटीनेंट बन गये..
इसके बाद फिर यह दो पार्ट्स में बंटी और फिर वापस एक हुई, फिर बंटी और आखिर में तमाम टुकड़ों में बंट कर अपने वर्तमान रूप तक पहुंची जिन्हें हम रोडीनिया, लौरेशिया, गोंदवाना, पैंजिया आदि के रूप में जानते हैं.. लेकिन यह डिस्क शिफ्टिंग थमी नहीं है बल्कि लगातार जारी है और करोड़ों साल बाद फिर एक हो जायेगी।
इसे माॅडल के जरिये समझना चाहें तो एक इंडेक्शन चूल्हा लीजिये, दूध भरा बर्तन रखिये और दूध के ऊपर चाकलेट पाउडर छिड़क के उसकी लेयर बना दीजिये और कम तापमान पे चूल्हा चालू कर दीजिये। अब इंडक्शन प्लेट और बर्तन की तली आपका कोर है, उसमें भरा दूध मेंटल और ऊपर छिड़की चाकलेट लेयर आपका क्रस्ट।
तापमान बढ़ने के साथ आप देखेंगे कि चाॅकलेट लेयर कई टुकड़ों (टेक्टोनिक प्लेट्स) में बंट गयी और सभी टुकड़े इधर-उधर तैर रहे हैं लेकिन अगर तापमान और बढ़ा दें कि दूध एकदम उबलने लगे तो?
वेल.. अर्थ क्रस्ट डिप्लेसमेंट नाम की एक थ्योरी कहती है कि ऐसा पृथ्वी के अंदरूनी तापमान में लगातार होती वृद्धि की वजह से हो सकता है और तब प्लेटों की वह शिफ्टिंग जो करोड़ों सालों में इतने धीरे होती है कि हम महसूस भी नहीं कर पाते, वह कुछ मिनटों या घंटों में हो जायेगी और इस आपाधापी में वह कयामत आ जायेगी जो आप 2012 नाम की फिल्म में देख चुके हैं.. जी हाँ, वह फिल्म इसी थ्योरी पर बनी थी।
Written By Ashfaq Ahmad
Post a Comment