आस्था बनाम तर्क फाईनल
क्या शरई हुकुमत एक आदर्श व्यवस्था हो सकती है
अगर शरई कानून का उदाहरण कम अपराध दर और सुरक्षित माहौल के उदाहरण के तौर पर देना ही चाहते हैं तो इसपे भी गौर कीजिये कि सबसे लोवेस्ट क्राईम रेट वाले दुनिया के दस देश आईसलैंड, डेन्मार्क, आस्ट्रिया, न्यूजीलैंड, पुर्तगाल, चेक रिपब्लिक, स्विटजरलैंड, कनाडा, जापान और स्लोवेनिया हैं— तो वहां की व्यवस्था आदर्श क्यों नहीं?
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शरई कानून उस दौर में परिभाषित किये गये थे जब अरब में कबीलाई संस्कृति थी— राजशाही निजाम था। उस दौर में जानवरों, औरतों, वर्चस्व और सत्ता विस्तार के लिये अक्सर जंगें होती थीं, जिनमें बड़े पैमाने पर औरतें बेवा होती थीं— उन्हें सहारा देने के लिये ही एक से ज्यादा निकाह या लौंडी बनाने की इजाजत दी गयी थी... अब कौन सी जंगें हो रही हैं?
वहां रहने बसने वाले खुशी या मजबूरी में इसे एक्सेप्ट करें तो करें लेकिन लोकतंत्र में संपूर्ण नागरिक आजादी जीते हुए भी अगर आपको सऊदी की शरई व्यवस्था आकर्षित कर रही है, जहां कदम-कदम पर बंदिशें हैं तो आप धार्मिक बीमार हैं— और आस्था से आगे आप कुछ सोचना नहीं चाहते। यहां तक कि उस व्यवस्था में मेरी यह बात भी ब्लास्फेमी के अंतर्गत आयेगी क्योंकि मैंने शरीयत पे सवाल उठाये, जिसकी सजा मौत है— आपको ऐसी व्यवस्था चाहिये? मुझे तो हर्गिज नहीं चाहिये। वहां किसी दूसरे धर्म के मानने वाले को नागरिकता नहीं मिल सकती न वह अपनी पूजा पद्धति अपना सकता है।
और भारत में जो शरीयत के पैरोकार इधर-उधर फिरते नजर आते हैं— उनसे एक गुजारिश है कि भले हमारा निजाम जमहूरी है, पर एक सच्चे मोमिन के तौर पर वे खुद पर शरीयत लागू कर लें और कोई ऐसा काम न करें जो शरई एतबार से गलत हो, या गुनाह हो। मसलन—
ब्याजयुक्त बैंकिंग प्रणाली से तौबा कर लें— म्यूचुअल फंड्स, शेयर, एफडी जो भी हो उसे फौरन तोड़ दें। बिजली चोरी से तौबा कर लें, जो मुस्लिमों में सबसे आम रिवाज है। घर में तस्वीरों की मनाही है तो टीवी तोड़ के फेंक दें। मोबाईल पर चूँकि पोर्न भी उपलब्ध रहता है और फेसबुक वगैरह पर पराई ख्वातीन की तस्वीर/वीडियो वगैरह दिख जाते हैं तो स्मार्टफोन का इस्तेमाल छोड़ दें और साधारण बटन वाले मोबाइल रखें। चुस्त कपड़े (जींस टीशर्ट वगैरह) बिलकुल न पहनें। राह चलते, उठते बैठते किसी भी लड़की औरत को न ताकें। शरीयत ने बेटी को संपत्ति में हिस्सेदार बनाया है, तत्काल अपनी बहन या बेटी को उसका वाजिब हक दें। यह तो वह काम हैं जो मोमिन धड़ल्ले से कर रहे हैं— बाकी जो जुए, शराब, गारतगिरी जैसी लानतें हैं, वह तो अलग मसला है।
इतना कर सकते हैं तो कर के देखिये, फिर उसके बाद शरई कानून या शरीयत की बात करेंगे तो वाकई आपकी बात लोगों के लिये मायने रखेगी।
ईश्वर ने इन्सान को बनाया या इंसान ने ईश्वर को
ईश्वर ने इंसान को बनाया या इंसान ने ही ईश्वर को बनाया— यह विवाद तो शायद कभी हल न हो, लेकिन एक अनदेखे ईश्वर का अस्तित्व तब से है जब दुनिया में किसी पहले इंसान को किसी खौफ के बीच कोई पहली उम्मीद बंधी होगी। डर और उम्मीद— यहीं से शुरू होता है ईश्वर और तब भले उसे किसी खास रूप में न जाना गया हो, लेकिन जैसे-जैसे इंसान समझदार होता गया, ईश्वर भी अलग-अलग रूपों में मान्य होता गया और यूँ उसका अलग-अलग होना ही वर्तमान में प्रचलित 'धर्म' है।
धर्म का वास्तविक अर्थ यह नहीं जो आज दुनिया में सबके सामने है, पर व्यवहारिक अर्थ जरूर यही है— तुम हिंदू, मैं मुसलमान, वह सिख, वह इसाई, वह यहूदी।
तो थोड़ी देर के लिये खुद को इस तिलक, टोपी, क्रास, पग से मुक्त कर लीजिये— और खोजिये कि धर्म क्या है? इसका वास्तविक रूप क्या है— क्यों है यह और इसने आपको आखिर दिया क्या है? क्या हासिल कर रहे हैं आखिर आप इस धर्म से?
अतीत को अतीत में छोड़ दीजिये, उन किताबों में जो भी लिखा था वह उस वक्त की परिस्थितियों के हिसाब से, उस वक्त के इंसानों को संभालने के लिये लिखा गया था। वर्तमान में आइये और सोचिये कि किसी को गाली देना धर्म हो सकता है, या किसी से प्यार के दो मीठे बोल धर्म होना चाहिये? किसी से नफरत करना धर्म हो सकता है या किसी से प्यार करना धर्म होना चाहिये? किसी की जान ले लेना धर्म हो सकता है या किसी की जान बचा लेना? किसी का हक छीन लेना धर्म हो सकता है या किसी मजलूम को हक देना/दिलाना? किसी पर अन्याय करना धर्म हो सकता है या किसी को न्याय देना/दिलाना? किसी को विपरीत विचारधारा के नाम पर प्रताड़ित करना धर्म हो सकता है या दूसरी विचारधारा के लोगों को सम्मान देना?
ऐसे जितने भी सवाल सोच सकते हैं, बंद आंखों के साथ उन सवालों को सोचिये और ईमानदारी से खुद को खंगालिये। अपने जवाबों को उस धर्म की कसौटी पर परखिये, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आप ढोते चले आ रहे हैं। सोचिये, मंथन कीजिये कि धर्म किसलिये था— क्यों जरूरत थी धर्म की और आप किस तरह उस धर्म को निभा रहे हैं।
हिंदुओं में भी 'ध्यान' द्वारा ईश्वर को तलाशने और उससे खुद को जोड़ने का मार्ग बताया गया है और हमारे यहां भी उसे 'सलात' कहा गया है। सलात का अर्थ ध्यान ही है, यानि ईश्वर से खुद को जोड़ना— पैगम्बर ने इस सलात को 'नमाज' के रूप में अपनाया था, सूफियों ने किसी और रूप में— लेकिन बाद के लोगों ने नमाज को ही नियम के रूप में अपना लिया और आज इसका अर्थ ही कहीं खो कर रह गया है। यह सवाल मुझसे नहीं, अपने आप से कीजियेगा कि क्या आप नमाज में 'ध्यान' की उस अवस्था तक पंहुच पाते हैं कि खुद का जुड़ाव अल्लाह से महसूस कर सकें या आपका मन दुनियाबी जोड़ घटाव में भटकता रहता है? ऊंचे पायजामे या खड़ी टोपी में अटका रहता है? क्या वाकई में आप खुद को 'सलात' के अरीब-करीब भी पाते हैं? अगर नहीं तो उसकी वजह भी तलाशिये।
बहरहाल, इतना मंथन करने से आपको कम से कम ज्ञान का यह मोती अगर नहीं मिल पाया कि किसी इंसान को तकलीफ पंहुचाना धर्म नहीं, बल्कि किसी की तकलीफ में काम आना, उसकी तकलीफ को दूर करना ही धर्म है— तो तय मानिये कि आपके इंसान होने में ही कमी है।
धर्म अधर्म आपद्धर्म
यहाँ लोग अक्सर यह सवाल पूछते पाये जाते हैं कि धर्म क्या है? तो सवाल अपनी जगह सही होता है लेकिन सामने वाले के जवाब भिन्न हो सकते हैं... असल में जब आप अंग्रेजी में रिलीजन या उर्दू में मजहब कहते हैं तो उसका सीधा और एकमात्र अर्थ होता है— ईश्वर को मानने वाली विशेष विचारधारा, पंथ, एकरूपता के नियम से बंधा बाड़ा— लेकिन जब आप हिंदी में कहते हैं धर्म, तो इसके दो अर्थ होते हैं। पहला अर्थ जो आमतौर पर प्रचलित है, वह रिलीजन और मजहब ही है—
लेकिन जो इसका दूसरा अर्थ है, असल में वही 'धर्म' शब्द का वास्तविक अर्थ है। आपके सद्कर्म— आपका वह आचरण जो मानव कल्याण के अनुरूप हो, वही असल में धर्म है। अब इसे विस्तृत व्याख्या में समझिये—
आपकी समूची जिंदगी के हर छोटे बड़े अमल को सिर्फ तीन भागों में बांटा गया है— धर्म, अधर्म और आपद्धर्म। आप कभी इसपे ध्यान दिये हों न दिये हों— लेकिन आपका हर छोटा बड़ा काम, आपका जिंदगी के हर कदम पर लिया गया हर छोटा बड़ा फैसला इन्हीं तीन नियमों के अंतर्गत ही आता है।
सच बोलना, सच का साथ देना, ईमानदारी से जीवन यापन करना, झूठ फरेब धोखेबाजी से परहेज करना, न्याय करना, न्याय का साथ देना, मजलूम के हक में खड़े होना, जालिम के खिलाफ खड़ा होना, अन्याय न करना, दूसरों के काम आना, अवैध, समाज द्वारा बहिष्कृत, स्वार्थपरक कार्य से परहेज रखना, कहने का मतलब यह कि आपका हर वह कार्य जो मानव की बेहतरी और कल्याण के लिये हो... असल में धर्म है।
और ठीक इसके विपरीत जो भी कार्य होगा, जिसके परिणाम किसी इंसान के लिये अहितकारी, परेशानी पैदा करने वाले, तकलीफ देने वाले हों... वह अधर्म के दायरे में आयेगा।
अब इनके बीच एक कड़ी होती है आपद्धर्म की— यानि आपके वे कार्य जो दिखने में अधर्म लगें लेकिन उनमें धर्म छुपा हो— वह आपद्धर्म है। इसे दो तीन उदाहरणों से समझ सकते हैं— आप किसी ऐसी जगह झूठ बोलते हैं जहां सच बोलना किसी एक या अधिक इंसानों के लिये अहितकारी हो सकता है— तो आपका वह झूठ आपद्धर्म है। आप कहीं ऐसी जगह चोरी करते हैं जहां चुराई गयी वस्तु के पीछे आपका अपना स्वार्थ न हो कर दूसरों का कल्याण छुपा है, तो वह चोरी आपद्धर्म है। आप किसी ऐसी जगह जालिम के साथ खड़े हो जाते हैं जहां आप किसी तरह मजलूमों की मदद कर सकें तो आपका उस जालिम के साथ खड़ा होना आपद्धर्म है।
आप इसे समझें न समझें लेकिन आपकी हर एक्टिविटी इन्हीं नियमों में बंधी है। और मजे की बात यह है कि सभी मजहबों के मूल में आपको यह चीज मिलेगी। गीता में इसी आधार पर कौरवों को श्रीकृष्ण ने अधर्मी ठहराया था, वर्ना पूजापाठ और भगवान वगैरह को तो वे भी मानते थे— और असल में इस्लामिक माइथॉलाजी में 'काफिर' का निर्धारण भी इसी आधार पर किया गया है। किसी नास्तिक या गैरमुस्लिम के रूप मे काफिर का अर्थ लोग अपने हिसाब से निकाल लेते हैं।
जबकि आप एक धार्मिक व्यक्ति के तौर पर जिस पूजा पाठ, आरती, तीर्थ, रोजे नमाज, हज, जकात वगैरह को ही धर्म समझ बैठे हैं— असल में इन्हें ईश्वर की चापलूसी करने वाली पद्धति या कर्मकांड वगैरह कह सकते हैं... लेकिन यह वास्तविक धर्म नहीं है। वास्तविक धर्म आपका सदआचरण है, जिसके साथ अगर आप इन कर्मकांड को करते हैं तो एक तरह से इन्हें धर्म के रूप में देख भी सकते हैं.. लेकिन अफसोस कि व्यवहारिक रूप में ऐसा होता नहीं है।
असल धर्म इंसानियत है न कि यह पूजा पद्धतियाँ
आइये इसके कई उदाहरण दे के समझाता हूँ— एक सच्चा मोमिन अपने आप में समझता है कि वह नमाज पढ़ के, रोजा रख के, हज करके बहुत नेक अमल कर रहा है और इसका उसे बहुत सवाब मिलेगा— लेकिन वह दुकान पर बैठ कर ग्राहक से झूठ बोल रहा है कि उसके माल की इतने की तो खरीद है, उतने में दे सकता है— जबकि यह सच नहीं है। वह सारे नेक अमल कर रहा है लेकिन किराये पर लिये, या नजूली जमीन पर मकान या दुकान पे कब्जा किये बैठा है। घर में चोरी की लाईट जल रही है और उस चोरी की लाईट से खींच कर हासिल पानी से वजू कर के नमाज पढ़ रहा है। चोरी की लाईट से जलते हीटर पर बनी अफतारी से अफ्तार कर रहा है, खाना खा रहा है।
मस्जिद में लाईट की सीधी चोरी या हेराफेरी से हासिल पानी, पंखे, रोशनी का उपभोग करते हुए वजू कर रहा है, नमाज पढ़ रहा है— रिश्वत, कमीशन, फरेब, हेराफेरी या दूसरे नाजायज तरीके से हासिल रकम से हज कर आता है और हाजी बन जाता है। धर्म कार्य के तौर पर सड़कें घेर कर नमाज पढ़ रहा है.. जुलूस निकाल रहा है, भले सारा ट्रैफिक बधित हो जाये, किसी की ट्रेन, प्लेन, बस छूट जाये.. या एंबुलेंस में किसी की जान निकल जाये।
ठीक इसी तरह एक सच्चा हिंदू माथे पर तिलक लगाये, हाथ में लाल धागा बांधे, दिन रात राम राम कर रहा है, मंदिरों के घंटे बजाता फिर रहा है— लेकिन साथ ही झूठ, फरेब, मक्कारी, धोखेबाजी सब किये जा रहा है। कमीशन, रिश्वत, कालाबाजारी, टैक्स चोरी सब करके बचाये पैसे से दान पुण्य कर रहा है। चोरी की लाईट से धार्मिक पंडालों को सजा कर जगराते कर रहा है। बड़े-बड़े लाउडस्पीकर, डीजे साउंड लगा कर कथा कर रहा है— भले आसपास बीमार लोग हों, एग्जाम देने वाले बच्चे हों या लोग शोर से पागल हुए जा रहे हों।
गणपति, नवरात्रि, कांवड़ के जुलूस के नाम पर सड़कों पर अपना कब्जा करता फिर रहा है, भले ट्रैफिक व्यवस्था ध्वस्त हो रही हो। जगराते या बड़ा मंगल टाईप धार्मिक आयोजनों के नाम पर सड़कें घेर कर चलते फिरते लोगों के लिये तो मुसीबतें पैदा कर ही रहा है— हैवी साउंड सिस्टम से ध्वनि प्रदूषण करके आसपास के लोगों को बीमार किये दे रहा है— लेकिन समझ रहा है कि बहुत धार्मिक कार्य कर रहा है और इससे उसे बड़ा पुण्य मिलेगा, जिससे मोक्ष या स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
धर्म के नाम पे पाखंड, पोंगापंथी करने वाले यह सारे लोग धोखे में हैं— भ्रम में हैं कि यह पुण्य या सवाब के लायक कोई धर्म कार्य कर रहे हैं। असल में यह सब जानते बूझते, आंखें बंद किये धड़ल्ले से अधर्म कार्य में लगे हुए हैं और ऐसा नहीं है कि इन्हें इसका अहसास नहीं होता... होता है और इसी अहसास से पैदा अपराधबोध को मिटाने के लिये यह निजी जिंदगी से ले कर सोशल मीडिया तक पर बहुत शोर शराबा करके, बहुत प्रचंड तरीके से यह जताने की कोशिश में रहते हैं कि यह बहुत बड़े धार्मिक लोग हैं और दूसरों को तुच्छ साबित करने में लगे रहते हैं।
आपको क्या लगता है कि यह धार्मिक लोग हैं और अगर वाकई कोई ईश्वर अल्लाह है तो वह इनसे खुश होगा? तो आप खुद को उसकी जगह रख के सोच लें कि शायद इनकी नौटंकी पे आप बजाय खुश होने के हंटर से इनकी खाल तब तक उधेड़ेंगे, जब तक यह सही मायने में धर्म अधर्म के बीच का फर्क सही सही न समझ जायें।
Written by Ashfaq Ahmad
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