धर्म यात्रा 3
आर्य संस्कृति में श्रुति स्मृति ग्रन्थ
मूल रूप से आर्य साकार की पूजा करने वाले नहीं थे और न ही मंदिर बनाते थे। यह चलन व्यापक हिंदू धर्म से अलग हुई शाखाओं के रूप में जैनियों और बौद्धों की देखादेखी शुरू हुआ। आज तो जो हिंदू धर्म हम अपने आसपास देखते हैं वह वैदिक धर्म तो नहीं है बल्कि कई विचारधाराओं का मिश्रण लगता है। वैदिक धर्म का पालन करने वाले आर्यसमाजी तो आज भी खुद को अलग खांचे में रखते हैं।
बहरहाल जब भारत में हिंदू धर्म स्थापित हो गया था तो उनमें शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं), वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं), शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं) और स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक समान मानते हैं) के रूप में मुख्य संप्रदाय थे जिनमें शैव, वैष्णव और शाक्त आपस में लड़ते झगड़ते रहते थे और अपनी कहानियों में एक दूसरे के परमेश्वर को नीचा दिखाने की कोशिश करते थे— ख़ास कर शैव और वैष्णव। इससे निपटने के लिये संतों ऋषियों ने कई तरह की कोशिश की... और काफी हद तक तो कामयाबी पाई ही।
श्रुति एवं स्मृति |
इस धर्म में दो तरह के ग्रंथ हैं ठीक सेमिटिक (इस्लाम के कुरान हदीस) की तरह— श्रुति और स्मृति। श्रुति मतलब ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, ब्रह्मसूत्र व उपनिषद जो कुरान की तरह अपिरवर्तनीय हैं और स्मृति मतलब रामायण, महाभारत, भगवत गीता, पुराण, मनुस्मृति, धर्म शास्त्र और धर्म सूत्र और आगम शास्त्र जिनमें देश कालानुसार बदलाव हो सकता है।
अब यहां से खेल समझिये— स्मृति ग्रंथों में कथायें हैं कल्पना और रूपकों से भरी। आपको यहां अपनी बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल करना होगा और तर्क की कसौटी पर परख कर समझना होगा कि क्या सत्य है और क्या कल्पना और रूपकों के सहारे कहा गया कोई गूढ़ संदेश... क्यों रामायण में उत्तर का नायक और दक्षिण का खलनायक था— या कहीं इन रामायण महाभारत में चरित्रों, रूपकों के सहारे मन की अच्छी बुरी अवस्थाओं को ही तो नहीं परिभाषित किया गया?
अजीबोगरीब रूप वाले देवी देवता कहीं रूपक तो नहीं
या हो सकता है कि जैसे हम प्रकृति से जुड़ी शक्तियों को मानते थे और शेर या हाथी को शक्ति का सूचक मानते थे तो हो सकता है कि किसी काल में स्थानीय संस्कृति में किसी कबीले का मुखिया या बाहुबली टाईप राजा हुआ हो जो बहुत बहादुर हो और जैसे ‘अलेग्जेंडर’ मूवी में अपने को शेर साबित करने के लिये शेर के चेहरे वाला मास्क लगा कर नायक खुद को पेश करता है— ठीक उसी तर्ज पर वह व्यक्ति खुद, शक्ति के एक और प्रतीक हाथी के रूप में पेश करता रहा हो और उसके फालोवर्स में उसकी मान्यता देवता जैसी हो— तो हो सकता है उस चरित्र को अपने लिटरेचर में समाहित करने के लिये गणेश जी का गढ़न हुआ हो... वर्ना मैल से बालक, इंसानी शिशू और हाथी के सर का व्यास, गर्दन की मांसपेशियों और ब्लड ग्रुप के बीच भला कोई सामंजस्य है?
प्राचीनतम लेखन |
स्मृति ग्रंथों की तरह ही इस्लाम में हदीसें हैं जिनमें कुछ भी लिखा है लेकिन सबसे बड़ा फर्क उनमें यह है कि रूपकों का कोई सहारा नहीं लिया गया और पात्र भी काल्पनिक नहीं— लेकिन जो बातें उनमें उकेरी गयी हैं उनकी सटीकता की रत्ती भर भी गारंटी नहीं। जो वाक्यात उनमें दर्ज हैं वह जिस वक्त घटित हुए थे उस वक्त कोई लिखित इतिहास तैयार नहीं किया गया। जो थोड़ा बहुत था भी वह नष्ट हो गया और बातें जुबान दर जुबान आगे बढ़ती रहीं और उनमें भेद पड़ते रहे।
नौवीं शताब्दी में जब इन्हें कलमबद्ध किया गया तब सुन्नी कुछ कह रहे थे, शिया मत के लोग कुछ और इतिहास के स्कॉलर कुछ। दावे सबके हैं कि हमारा वाला डेटा गॉड अप्रूव्ड है लेकिन सच तीन तो नहीं होते— ठीक स्मृति ग्रंथों की तरह यहां भी आपको अपनी बुद्धि और विवेक से ही काम लेना पड़ेगा।
क्या वेद ईश्वरीय ग्रन्थ हैं
वेदों के बारे में एक धारणा है कि यह वह ज्ञान है कि जो स्वयं ईश्वर ने ऋषियों को दिया था और कालांतर में वे सीना ब सीना आगे बढ़ाते रहे और तब लिखे गये जब लिखने की कला और तकनीक सहज उपलब्ध हो गयी। जाहिर है कि इतनी मोटी मोटी किताबें ताम्र पत्रों, रेशमी कपड़े, बांस, शिलाओं, चमड़े पर उकेरना संभव नहीं था और कागज का आविष्कार 200 ईसापूर्व हुआ था— बाईबिल (पुराना नियम-नया नियम) से ले कर वेद तक लिखे सब उसके बाद ही गये, दावे कोई कुछ भी करता रहे।वैदिक साहित्य |
अब इतने वक्त में वही हजारों साल पुराना ज्ञान जूं का तूं लिखना मुश्किल है, तो जाहिर है तब तक उपलब्ध ज्ञान, खोज और उसके अनुकूल कल्पनाओं को उसमें सहेजा जरूर गया था और यह चतुराई श्रुति स्मृति सभी ग्रंथों में मिलती है— पुराण तो अट्ठारहवीं शताब्दी तक लिखे गये और उनमें जो भविष्यवाणियां लिखी हैं, वे घटित होने के बाद दर्ज की गयीं... जिसके बारे में पहले कभी मैंने ही लिखा भी था कि देवता, निशानियों समेत राजा भोज को पैशाचधर्म (इस्लाम) के बारे में बताता है, जिसे वह उत्पन्न करेगा।
यहां तक कि अकबर के आभामंडल का प्रभाव था कि उसे भी पूर्वजन्म का मुकुन्द ब्राह्मण घोषित कर दिया था जो दूध के साथ गाय का रोयां पी गया था और शापित हो कर अकबर म्लेच्छ के रूप में पैदा हुआ था। तो किताबें लिखी जातीं रहीं और नये उपलब्ध ज्ञान के अनुसार चीजें उनमें समाहित की जाती रहीं।
पता चला मूल ग्रंथ बीस हजार श्लोक का था, लेखक को गुजरे जमाना हो गया लेकिन श्लोक बढ़ते-बढ़ते लाख की संख्या पार कर गये। ऐसा कारनामा सभी धर्मों की धार्मिक किताबों में मिलेगा। कुरान हाफिजे की प्रतिबद्धता के कारण इस मिलावट से तो बच गया लेकिन उस पर भी कई इल्जाम हैं और उसमें भी नये उपलब्ध ज्ञान के अनुसार ‘ब्रैकेट’ का सम्मिश्रण किया गया।
अध्यात्म की अवधारणा
ऋषियों मुनियों ने बहुत पहले योग, ध्यान, साधना के द्वारा उस केन्द्रीय ऊर्जा, या कहें तो परम ब्रह्म को जान लिया था जिसके लिये अगर उनके ही नज़रिये से ही देखें तो कह सकते हैं कि ‘वह’ ही जगत का सार, जगत की आत्मा है, आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति भी होती है और नष्ट होने पर उसी में विलीन हो जाता है, वह विश्वातीत भी है, विश्व से परे भी।
यूँ समझिये कि मेडिटेशन द्वारा मन के मंथन से उपजा अमृत, जो कालातीत, नित्य और शाश्वत है— अद्वैत वेदांत के अनुसार जब मानव मन से ईश्वर को जानने की कोशिश करता है, तब ब्रह्म ईश्वर हो जाता है, इसी को आप कण-कण में ईश्वर के रूप में देख सकते है। यह ध्यान योग की कला भारत से ही दूर दराज के दूसरे देशों तक पंहुची थी।
तो इसी तरह इस्लाम के स्थापनापुरुष मुहम्मद साहब और कुरान को लेकर भी दो तरह की धारणायें हैं। एक तो सीधे सीधे उन्हें ईशदूत घोषित करती है जिनके पास जिब्रील नामी फरिश्ते खुदा के संदेश के रूप में आयतें लाते रहे और सिलसिला तेईस साल तक चलता रहा— गारे हिरा से शुरू हुआ सफर आखिरी पड़ाव तक चलता रहा, लेकिन संदेशवाहक जिब्रील कभी भी किसी दूसरी शख्सियत द्वारा नोटिस न किये गये।
अध्यात्म |
वहीं एक धारणा कहती है कि वे एक समाज सुधारक और गुरू थे, जिन्होंने गारे हिरा जा-जा कर ध्यान कला विकसित कर ली थी और मेडिशन द्वारा उन्होंने ब्रह्म तत्व को पाया था। किसी इंसानी जीवन में आने वाले हर पड़ाव, हर समस्या और हर उलझावे पर वे अपने साथियों के साथ विचार विमर्श करते थे, उस पर मनन करते थे और फिर मेडीटेशन द्वारा उसका हल एक आयत के रूप में निकालते थे।
इस धारणा के साथ आप उन सहाबियों के मशवरे से नाजिल हुई आयतों को जस्टिफाई कर सकते हैं, वर्ना प्रथम दृष्टया यह अजीब लगता है कि खुदा जैसी सर्वज्ञ शक्ति को भी सहाबियों के किसी मश्वरे की जरूरत थी कि वह उनके कहे अनुसार आयतें नाजिल करता था।
नमाज़ भी एक तरह का योग ही है
इस धारणा के साथ आप कुरान में इस्तेमाल हुए शब्द ‘सलात’ को भी जस्टिफाई कर सकते हैं जिसका अर्थ ही जोड़ना, कनेक्ट करना (ब्रह्म तत्व के साथ) होता है, जिसे 'कायम' करने को कहा गया है, वर्ना नमाज तो 'पढ़ी' जाती है और सलात का अर्थ नमाज ही होता है तो जो कुरान हर मसले पर व्यापक मश्वरे देती नजर आती है वह नमाज जैसे इस्लाम के सबसे अहम स्तून पर कोई भी व्याख्या नहीं करती कि इसे किस अवस्था में, कैसे और कितनी बार पढ़ना है।
नमाज भी योग ही तो है— जहां मेडिटेशन एक लंबी प्रक्रिया है, वहीं हो सकता है कि नमाज को वे मेडिटेशन के छोटे शुरुआती स्टेप के रूप में पढ़ते पढ़ाते रहे हों। आखिर इंटेंशन तो वही है कि नमाज द्वारा शेष दुनिया से हट कर खुद को खुदा से जोड़ना— लेकिन लोग चूँकि इसे एक इबादती क्रिया समझ के कर बस दोहराये जा रहे हैं तो वे मेडीटेशन को छू भी नहीं पाते।
नमाज की जिस हालत में नमाजी को बाकी जमाने से कट जाना चाहिये— वहीं लोग चटाई, अगली सफ के लोगों को, छत से लटके पंखों आदि को देखते हुए कहीं दुकान का हिसाब किताब जोड़ते हैं... कहीं दोस्त, लड़की, बॉस या किसी समस्या के बारे में सोचते रहते हैं— असल में यह ‘सलात’ शब्द का पहले ही कदम पे फेलुअर है।
क्या कुरान वाकई मुकम्मल है
बहरहाल कुरान को लेकर भी दो तीन तरह की धारणायें हैं कि जो आयतें नाजिल होती थीं वह मुहम्मद साहब लिखवा (हड्डी, लकड़ी, झिल्ली, चमड़े, पत्ते, छाल पर) लेते थे (जैद और अली से) और उन्हीं सब आयतों को खलीफा उस्मान के दौर में संकलित करके जिल्दबंद किया गया। इसकी जरूरत क्यों पड़ी— एक धारणा के अनुसार उसी दौर में कुरान के पठन में भेद पड़ने लगे थे तो उसे जिल्दबंद करा के सुरक्षित कराया गया। इसके साथ ही जितना भी बाकी मूल कंटेंट था वह सब का सब नष्ट करा दिया गया।
प्राचीनतम कुरान |
इस धारणा के साथ एक इल्जाम यह भी है कि जो आयतें नाजिल होती थीं वह मुहम्मद साहब फातिमा के पास सुरक्षित रखते थे, जिसे 'मुसहफ ए फातमा' कहा गया और यही असली कुरान था जिसमें शियों के इमाम जफर सादिक के अनुसार 17000 हजार आयतें थीं जबकि मौजूदा कुरान में 6666 आयतें हैं (उसूले काफी)।
इसके सिवा इसके कंपलीशन पर सवाल उठाती एक चीज और भी है जो हदीसों में कई जगह मिलती है कि रसूल अक्सर भूल जाते थे आयतों को, और इस तरह सूरह अहजाब की कई आयतें गुम हो गयी। एक 'रज्म'' की भी आयत थी जो तौरात से ली गयी थी (बलात्कार या व्याभिचार की सजा के तौर पर संगसार करके खत्म करना), जिसे रसूल रजः कबीरः कहते थे— वह भी कुरान में शामिल होने से रह गयी थी, लेकिन इसे शरीयत में शामिल किया गया और आज भी यह सजा के तौर पर कायम है।
जबकि इससे इतर एक धारणा यह भी है (सूफिज्म से जुड़ी) कि कुरान की आयतों को कभी लिखाया नहीं गया— यह तो वह मंथन से मिला अमृत रूपी ज्ञान था जो सीना ब सीना मुहम्मद साहब ने अली को ट्रांसफर किया था और इसी बिना पर उन्हें बोलता कुरान की संज्ञा दी थी। फिर आगे इसे अली ने पंहुचाया था।
Written by Ashfaq Ahmad
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