मानव विकास यात्रा 5
धर्मों का विस्तार
शुरुआती सभ्यतायें एकल भूमंडलीकरण से अछूती थीं और ईसा से दस हजार साल पूर्व में दुनिया भर में हजारों आस्थायें पल रही थीं जो कि वर्तमान में विश्व की आबादियों के एक दूसरे से जुड़ने पर वे सिमटती गयीं... इसकी शुरुआत इसाइयत के साथ हुई और इस्लाम और बौद्धिज्म ने इसमें वैश्विक भागीदारी निभाई। शुरुआती सभ्यतायें बहुदेववादी थीं और उनके लिये एक साथ कई देवता पूज्यनीय हो सकते थे। एकेश्वरवाद इसी धारा के बीच से पनपा था जब किसी देवता के उपासक उसे ही सर्वश्रेष्ठ घोषित कर के उस के पीछे लामबंद हो गये।
दुनिया का पहला इस तरह का ज्ञात एकेश्वरवादी धर्म ईसा से 350 वर्ष पूर्व प्रकट हुआ जब मिस्र के एक फैरो आख्तानेन ने मिस्र के देवतामंडल समूह के एक देवता ऑटिन को सृष्टि का सर्वशक्तिमान नियन्ता घोषित किया और इसे राजकीय धर्म बना कर दूसरे किसी भी देवता की उपासना पर रोक लगा दी... लेकिन यह क्रांति असफल रही और उसकी मौत के बाद यह विचारधारा त्याग दी गयी।
शुरुआती सिविलाइजेशन में बहुदेववाद का ही बोलबाला रहा— जिसकी उत्पत्ति ग्रीक भाषा से हुई। यह विचारधारा समूचे क्षेत्रों को एक दूसरे से जोड़ती थी, समेटती थी... लेकिन इसी धारा ने एकेश्वरवादी आस्थाओं को भी लगातार जन्म दिया। गास्पल के प्रचार प्रसार ने इस बुनियादी विचारधारा को सीमित जरूर किया, जिसे आगे इस्लाम ने जबरदस्त चोट पहुंचाई।
बहुदेववाद ने एकेश्वरवाद के अतिरिक्त द्वैतवादी आस्थाओं को भी जन्म दिया। द्वैतवादी दो परस्पर विरोधी सत्ताओं को स्वीकृति देते हैं— शुभ और अशुभ। एकेश्वरवाद से भिन्न द्वैतवाद यह मानता है कि अशुभ एक स्वतंत्र सत्ता है जिसको शुभ शक्ति ईश्वर ने न तो रचा है और न ही वह ईश्वर के आधीन है। द्वैतवाद कहता है कि समूची सृष्टि इन दोनों परस्पर विरोधी शक्तियों का संघर्ष क्षेत्र है।
द्वैतवाद और एकेश्वरवाद
द्वैतवाद और एकेश्वरवाद दोनों कुछ प्वाइंट पर धराशायी हो जाते हैं तो कुछ सवालों के जवाब भी देते हैं कि मसलन दुनिया में कुछ भी अशुभ क्यों है— दुख, तकलीफें, गरीबी, भुखमरी जैसी समस्यायें क्यों हैं... इसका जवाब द्वैतवाद देता है अपने मूल सिद्धांत में लेकिन फिर वह अनुशासन के मुद्दे पर फंस जाता है कि शुभ अशुभ के बीच सतत चलने वाले संघर्षों के नियम कौन तय करता है? अब इसका जवाब एकेश्वरवाद देता है लेकिन इसी तरह के कुछ और प्वाइंट्स पर वह निरुत्तर हो जाता है।
द्वैतवाद ने ही 1500 ईसापूर्व और 1000 ईसापूर्व के बीच मध्य एशिया में जरथुष्ट्रवाद को जन्म दिया था, जो जोरोआस्टर नाम के एक पैगम्बर से चला था और पीढ़ी दर पीढ़ी फैलते हुए 530 ईसा पूर्व एक महत्वपूर्ण मजहब बन गया था और बाद में 651 तक सासानी साम्राज्य का अधिकृत मजहब था। इसने मध्य पूर्व और मध्य एशियाई मजहबों पर बहुत गहरा असर डाला— वैदिक धर्म की जड़ें भी आपको इसी में मिलेंगी।
हालाँकि बाद में इस्लाम के प्रसार ने इसे निगल लिया लेकिन एक अजब चीज यह देखिये कि एकेश्वरवादी यहूदी, इसाई और मुस्लिम भी द्वैतवादी सिद्धांत में यकीन रखते हैं। यानि 'अशुभ' के तौर पर वे 'डेविल' या 'शैतान' की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकारते हैं जो हर बुरा काम स्वतंत्र रूप से कर सकती है और ईश्वर की मर्जी या इजाजत के बगैर बड़ी से बड़ी तबाही मचा सकती है। यह बात और है कि वे यह कह कर खुद को बहला लेते हैं कि ईश्वर ने शैतान को यह छूट दे रखी है।
तर्कतः यह चीज नामुमकिन सी लगती है कि एक ईश्वर में यकीन रखने वाले लोग कैसे दो परस्पर विरोधी शक्तियों में यकीन कर लेते हैं जिनका एक दूसरे पे जोर नहीं चलता और दोनों ही यह साबित करते हैं कि उन दोनों में कोई भी सर्वशक्तिमान नहीं है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से एकेश्वरवादी यहूदी, इसाई और मुस्लिम ऐसा ही करते हैं... इस लचर तर्क के सहारे कि ईश्वर ने ही उस 'अशुभ' शक्ति को छूट दे रखी है।
अनीश्वरवादी धर्मों का अविर्भाव
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इन धर्ममतों का मानना था कि सृष्टि का नियमन करने वाली अतिमानवीय व्यवस्था किसी दैवीय शक्ति या सनक की नहीं बल्कि प्राकृतिक नियमों की उपज है— इनमें से कुछ ने देवताओं में यकीन तो रखा लेकिन वे सर्वशक्तिमान नहीं थे, बल्कि कुदरत के नियमों के उतने ही आधीन थे जितने खुद मनुष्य या प्रकृति से जुड़े सभी जीव और वनस्पति थे।
सेपियंस की शुरुआती छोटी छोटी आस्थायें इसी तरह पहले बहुदेववाद के रूप में विस्तारित हुईं— फिर बड़े पैमाने पर उस एकेश्वरवादी सिद्धांत के रूप में हावी हुईं जो अपने आप में द्वैतवाद को समाहित किये था और साथ ही मध्य एशिया में बहुदेववाद के रूप में कायम भी रहीं तो मध्य और पूर्वी एशिया में अनीश्वरवादी आस्थाओं के रूप में भी विकसित हुईं।
Written by Ashfaq Ahmad
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