MIROV/मिरोव CHAPTER 1
- ₹250.00
- BY
- BOOK: MIROV CHAPTER 1
- PAPERBACK: 250 PAGES
- PUBLISHER: GRADIAS PUBLISHING HOUSE
- LANGUAGE: HINDI
- ISBN-13: 978-81-948718-4-2
- PRODUCT DIMENSIONS: 13.95 X 1.75 X 21.59 CM
सोचिये कि एक दिन आप नींद से जागते हैं और पाते हैं कि आप उस दुनिया में ही नहीं हैं जो आपने सोने से पहले छोड़ी थी तो आपको क्या महसूस होगा... सन दो हजार बत्तीस की एक दोपहर न्युयार्क के मैनहट्टन में एक सड़क के किनारे पड़ी बेंच पर जागे एडगर वैलेंस के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था।
वह जिस जगह को और जिस दुनिया को देख रहा था वह उसने पहले कभी नहीं देखी थी, जबकि वह अपने आईडी कार्ड के हिसाब से न्युयार्क में रहने वाला एक अमेरिकी था... उसे यह नहीं याद था कि वह अब कौन था लेकिन धीरे-धीरे उसे यह जरूर याद आता है कि वह तो भारत के एक गांव का रहने वाला था और वह भी उस वक्त का जब मुगलिया सल्तनत का दौर था और अकबर का बेटा जहांगीर तख्त नशीन था।
उसे न सामने दिखती चीजों से कोई जान पहचान थी और न ही खुद की योग्यताओं का पता था लेकिन फिर भी सबकुछ उसे ऐसा लगता था जैसे वह हर बात का आदी रहा हो जबकि उसके दौर में तो न यह आधुनिक कपड़े पहनने वाले लोग थे, न गाड़ियां और न उस तरह की इमारतें। उसने कभी तलवार भी न उठाई थी मगर उसका शरीर मार्शल आर्ट का एक्सपर्ट था।
उसके घर में जो लड़की खुद को उसकी बीवी बताती थी, उसे कभी उसने देखा ही नहीं था… उसके लिये एकाएक सबकुछ बदल गया था, उसका देश, उसकी जमीन, उसके लोग और यहां तक कि उसका अपना शरीर और जेंडर भी... फिर कुछ इत्तेफ़ाक़ों के जरिये वर्तमान जीवन का कुछ हिस्सा उसे याद आता भी है तो कई ऐसे लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं जिनका दावा था कि उसने न सिर्फ उनके सिंडीकेट के एक मुखिया को खत्म किया था बल्कि उनके टेन बिलियन डॉलर भी पार किये थे... जबकि वह पूरी तरह श्योर था कि उसने कभी उन लोगों को देखा तक नहीं था।
इतना कम नहीं था कि उसे अपने बीते दौर का एक पेचीदा सवाल और उलझा देता है कि दुनिया भर से लूटा गया कुछ बेशकीमती जवाहरात और कलाकृतियों पर आधारित एक ऐसा खजाना भी उसकी जानकारी में कहीं दफन हुआ था जिसके पीछे न सिर्फ डच, फ्रांसीसी और ब्रिटिश सिपाही और जासूस पड़े थे बल्कि कुछ चीनियों के साथ भी उसी के पीछे उसकी सांठगांठ हुई थी लेकिन जिनके पीछे उसे मौत के मुंह में पहुंचना पड़ा था।
अब उस खजाने का जिक्र तक कहीं नहीं मिलता और न ही इतिहास में ऐसा कोई जिक्र मिलता है कि किसी के हाथ ऐसा कुछ लगा हो... हां— फ्रांस, ब्रिटेन के कुछ दस्तावेजों से इस बात का पता तो चलता है कि ऐसा कोई खजाना उस वक्त जिक्र में था लेकिन उन्होंने उसे बस अफवाह माना था। तो सवाल यह था कि अगर वह किसी के हाथ नहीं लगा तो उसे अभी भी वहीं होना चाहिये जहां उसे छोड़ा गया था... और इत्तेफाक से वह जगह उसे याद थी। उसे उस जगह का वो मालिक भी याद था जो खुद को उस तिलस्म का दरोगा कहता था जहां वह खज़ाना दफ़न था और खुद अपनी उम्र दो सौ साल की बताता था।
लेकिन उसका चार सौ साल बाद जागना और उस दौर की एक अफवाह को सच साबित करना उन सरकारों के भी कान खड़े कर देता है जो उस पर अपना दावा जताते थे और फिर एक लंबी जद्दोजहद शुरू हो जाती है उसे हासिल करने की... लेकिन जहां वह बेशकीमती खजाना मौजूद था, वहां तो अब किसी और की हुकूमत थी और हुकूमत भी ऐसी वैसी नहीं बल्कि ऐसे लोगों की जो खुद दुनिया भर में लूटमार ही करते फिरते थे। साथ ही कई ऐसे सवाल अब वजूद में आ गये थे जो तब उन लोगों की समझ में नहीं आये थे लेकिन अब की आधुनिक दुनिया को देख कर कहा जा सकता था कि वे चीजें और वह जगह उस दौर में होने ही नहीं चाहिये थे लेकिन थे और क्यों थे, इसका कोई भी जवाब वहां किसी के पास नहीं था।
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- BOOK: MIROV CHAPTER 1
- PAPERBACK: 250 PAGES
- PUBLISHER: GRADIAS PUBLISHING HOUSE
- LANGUAGE: HINDI
- ISBN-13: 978-81-948718-4-2
- PRODUCT DIMENSIONS: 13.95 X 1.75 X 21.59 CM
सोचिये कि एक दिन आप नींद से जागते हैं और पाते हैं कि आप उस दुनिया में ही नहीं हैं जो आपने सोने से पहले छोड़ी थी तो आपको क्या महसूस होगा... सन दो हजार बत्तीस की एक दोपहर न्युयार्क के मैनहट्टन में एक सड़क के किनारे पड़ी बेंच पर जागे एडगर वैलेंस के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था।
वह जिस जगह को और जिस दुनिया को देख रहा था वह उसने पहले कभी नहीं देखी थी, जबकि वह अपने आईडी कार्ड के हिसाब से न्युयार्क में रहने वाला एक अमेरिकी था... उसे यह नहीं याद था कि वह अब कौन था लेकिन धीरे-धीरे उसे यह जरूर याद आता है कि वह तो भारत के एक गांव का रहने वाला था और वह भी उस वक्त का जब मुगलिया सल्तनत का दौर था और अकबर का बेटा जहांगीर तख्त नशीन था।
उसे न सामने दिखती चीजों से कोई जान पहचान थी और न ही खुद की योग्यताओं का पता था लेकिन फिर भी सबकुछ उसे ऐसा लगता था जैसे वह हर बात का आदी रहा हो जबकि उसके दौर में तो न यह आधुनिक कपड़े पहनने वाले लोग थे, न गाड़ियां और न उस तरह की इमारतें। उसने कभी तलवार भी न उठाई थी मगर उसका शरीर मार्शल आर्ट का एक्सपर्ट था।
उसके घर में जो लड़की खुद को उसकी बीवी बताती थी, उसे कभी उसने देखा ही नहीं था… उसके लिये एकाएक सबकुछ बदल गया था, उसका देश, उसकी जमीन, उसके लोग और यहां तक कि उसका अपना शरीर और जेंडर भी... फिर कुछ इत्तेफ़ाक़ों के जरिये वर्तमान जीवन का कुछ हिस्सा उसे याद आता भी है तो कई ऐसे लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं जिनका दावा था कि उसने न सिर्फ उनके सिंडीकेट के एक मुखिया को खत्म किया था बल्कि उनके टेन बिलियन डॉलर भी पार किये थे... जबकि वह पूरी तरह श्योर था कि उसने कभी उन लोगों को देखा तक नहीं था।
इतना कम नहीं था कि उसे अपने बीते दौर का एक पेचीदा सवाल और उलझा देता है कि दुनिया भर से लूटा गया कुछ बेशकीमती जवाहरात और कलाकृतियों पर आधारित एक ऐसा खजाना भी उसकी जानकारी में कहीं दफन हुआ था जिसके पीछे न सिर्फ डच, फ्रांसीसी और ब्रिटिश सिपाही और जासूस पड़े थे बल्कि कुछ चीनियों के साथ भी उसी के पीछे उसकी सांठगांठ हुई थी लेकिन जिनके पीछे उसे मौत के मुंह में पहुंचना पड़ा था।
अब उस खजाने का जिक्र तक कहीं नहीं मिलता और न ही इतिहास में ऐसा कोई जिक्र मिलता है कि किसी के हाथ ऐसा कुछ लगा हो... हां— फ्रांस, ब्रिटेन के कुछ दस्तावेजों से इस बात का पता तो चलता है कि ऐसा कोई खजाना उस वक्त जिक्र में था लेकिन उन्होंने उसे बस अफवाह माना था। तो सवाल यह था कि अगर वह किसी के हाथ नहीं लगा तो उसे अभी भी वहीं होना चाहिये जहां उसे छोड़ा गया था... और इत्तेफाक से वह जगह उसे याद थी। उसे उस जगह का वो मालिक भी याद था जो खुद को उस तिलस्म का दरोगा कहता था जहां वह खज़ाना दफ़न था और खुद अपनी उम्र दो सौ साल की बताता था।
लेकिन उसका चार सौ साल बाद जागना और उस दौर की एक अफवाह को सच साबित करना उन सरकारों के भी कान खड़े कर देता है जो उस पर अपना दावा जताते थे और फिर एक लंबी जद्दोजहद शुरू हो जाती है उसे हासिल करने की... लेकिन जहां वह बेशकीमती खजाना मौजूद था, वहां तो अब किसी और की हुकूमत थी और हुकूमत भी ऐसी वैसी नहीं बल्कि ऐसे लोगों की जो खुद दुनिया भर में लूटमार ही करते फिरते थे। साथ ही कई ऐसे सवाल अब वजूद में आ गये थे जो तब उन लोगों की समझ में नहीं आये थे लेकिन अब की आधुनिक दुनिया को देख कर कहा जा सकता था कि वे चीजें और वह जगह उस दौर में होने ही नहीं चाहिये थे लेकिन थे और क्यों थे, इसका कोई भी जवाब वहां किसी के पास नहीं था।
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