स्पेस कर्व/SPACE CURVE
स्पेस कैसे कर्व होता है
न्यूटन के दिये दो ऐसे फार्मूले, जिन में आइंस्टाइन को सुधार करना पड़ा था, उनमें एक था कि टाईम एब्सोल्यूट है यानि यूनिवर्स में एक समान गति से घट रहा है जबकि ऐसा नहीं था और दूसरा था कि ग्रेविटी का प्रभाव तत्कालिक होता है,
यानि सपोज पृथ्वी सूर्य की ग्रेविटी से बंधी है और अभी अचानक एक सेकेंड में गायब हो जाये तो अगले पल में हमारी पृथ्वी उस ग्रेविटी के बंधन से मुक्त हो जायेगी और अपने ऑर्बिट को छोड़ कर स्पेस में निकल जायेगी।
यह चीज परेशान करने वाली थी क्योंकि यह स्थापित हो चुका था कि स्पेस में रोशनी से तेज कुछ नहीं चल सकता और उसे भी सूरज के सर्फेस से चल कर पृथ्वी तक आने में आठ मिनट से ज्यादा का समय लग रहा है लेकिन ग्रेविटी तत्काल खत्म हो रही है जिसका मतलब था कि वह रोशनी से तेज गति कर रही है...
ऐसा नहीं होना चाहिये। तब यहां से आइंस्टाइन ने यह थ्योरी दी थी कि स्पेस कर्व है और ग्रेविटी स्पेस और टाईम को बेंड कर देती है। इस कर्व स्पेस की वजह से ही सौरमंडल के सभी ग्रह संतुलित हैं न कि ग्रेविटी की वजह से।
इस बात को साबित करने का मौका आइंस्टाइन के हाथ तब लगा जब एक प्रयोग के दौरान एक दूसरे वैज्ञानिक अपनी ऑब्जर्वेट्री से एक सूर्यग्रहण के दृश्य को ऑब्जर्व कर रहे थे.. तब उन्हें सूरज के पीछे से एक ऐसा तारा दिख रहा था जिसकी एक्चुअल पोजीशन सूरज के पीछे थी और चूंकि सूरज उसके आगे था तो पृथ्वी से वह तारा नहीं दिखना चाहिये था... लेकिन वह दिख रहा था...
और यह तभी मुमकिन था जब उस तारे की रोशनी अपने सूर्य के ऊपर से कर्व हो कर पृथ्वी तक पहुंचे और यह भी तभी संभव था जब वह स्पेस कर्व हो जिसमें रोशनी ट्रैवल कर रही है, तभी वह रोशनी स्पेस के साथ कर्व हो कर पृथ्वी तक पहुंचेगी।
इससे एक तो यह साबित हुआ कि न्युटन का ग्रेविटी के तत्कालिक होने वाला फंडा गलत साबित हुआ, यानि सूरज के एकदम खत्म होने की स्थिति में भी पृथ्वी तत्काल अपना ऑर्बिट नहीं छोड़ेगी बल्कि उस कर्व के खत्म होने का प्रभाव खुद तक आने तक ऑर्बिट में बनी रहेगी...
और दूसरे यह कि स्पेस की डिजाइन कुछ ऐसी है कि इसे मोड़ा, दबाया, फैलाया और सिकोड़ा जा सकता है। कोई भी खगोलीय पिंड जितना भारी होगा उतना ही स्पेस को बेंड करके उसमें विकृति पैदा करेगा और इस श्रेणी में ब्लैकहोल्स सबसे टाॅप पर आते हैं जो स्पेस को 360 डिग्री तक मोड़ देते हैं कि प्रकाश भी इसमें फंस कर बाहर नहीं आ सकता।
अब इस स्पेस कर्व ने ही दो ऐसे कांसेप्ट दिये हैं जिनके सहारे स्पेस में चलने की अधिकतम गति जो प्रकाश के पास है, उससे पार पाया जा सकता है। पहला है वर्महोल टेक्नालॉजी यानि जैसे एक कागज लीजिये, दोनों किनारों पर दो छोटे सर्कल बनाइये...
आप पायेंगे कि उनके बीच पांच-छः इंच की दूरी है लेकिन फिर उस कागज को इस तरह मोड़ दीजिये कि वे दोनों सर्कल एक दूसरे से सट जायें और उनके बीच एक छेद बना लीजिये तो वह दूरी एकदम खत्म हो जायेगी। कागज की जगह समझिये आपने स्पेस को मोड़ा है और जो छेद बनाया है, वह वर्महोल है। इस तरह लाखों प्रकाशवर्ष की दूरी को भी कवर किया जा सकता है।
दूसरा कांसेप्ट है वार्प ड्राइव टेक्नीक का.. स्पेस में कोई चीज रोशनी से तेज नहीं चल सकती लेकिन खुद स्पेस चल सकता है। इसे ऐसे समझिये कि इस यूनिवर्स की उम्र चौदह अरब साल है, अगर यह रोशनी की गति से चला होता तो इसका डायमीटर अट्ठाइस अरब प्रकाशवर्ष होता...
लेकिन यह चौड़ाई तिरानवे अरब प्रकाशवर्ष है जो बताती है कि स्पेस खुद प्रकाश से तेज चला है। अब सवाल यह है कि हम कैसे उस गति को पा सकते हैं तो जवाब है कि अपने बजाय हम स्पेस को ही चला दें तो यह गति पा सकते हैं।
यह कैसे होगा.. इसे एक माॅडल से समझिये कि छल्ले की तरह घूमे वायर पर कुछ दूरी पर दो चींटी बिठाइये और फिर एक प्वाइंट को दूसरे की तरफ दबा दीजिये। आप पायेंगे कि एक चींटी बिना चले ही एक दूरी तय कर के दूसरी चींटी तक पहुंच गयी। स्पेस बिलकुल इसी तरह व्यवहार कर सकता है और थ्योरेटिकली यह संभव है कि वार्प ड्राइव के रूप में हम अपने पीछे के स्पेस को फैला कर और अपने आगे के स्पेस को संकुचित कर के डेस्टिनेशन तक रोशनी से तेज स्पीड में पहुंच सकते हैं..
हालांकि इसमें एक व्यवहारिक दिक्कत यह है कि इस तरह स्पेस संकुचन से जो स्पेस जंक पैदा होगा वह डेस्टिनेशन के ही परखच्चे उड़ा सकता है।
बहरहाल थ्योरी में स्पेस कर्व पर आधारित दोनों तकनीक काफी एक्साइटिंग लगती हैं लेकिन इसके लिये जो एनर्जी हमें चाहिये वह अभी रियलिटी कम और साइंस फिक्शन ज्यादा है और नजदीक भविष्य में ऐसी कोई संभावना नहीं है कि हम ऐसा कोई एग्जाॅटिक मैटर डिस्कवर कर पायें जिससे हमें यह एनर्जी हासिल हो सके और हम यूनिवर्स में मनचाही यात्राओं का सुख उठा सकें...
शायद इसके लिये हमें विकास के पैमाने पर कम से कम टाईप टू कैटेगरी की सिविलाइजेशन के रूप में ढलना होगा। उससे पहले यह तकनीक संभव नहीं लगती।
एक रोमांच पैदा करने वाली संभावना यह भी है कि हमसे पहले पनपी कोई इंटेलिजेंट लाईफ वाली स्पिसीज ऐसा कर पाने में कामयाब भी रही हो सकती है और इसी संभावना के मद्देनजर दुनिया भर के वैज्ञानिक एलियन लाईफ के सबूत ढूंढते फिरते हैं, लेखक कहानियां लिखते हैं, फिल्मकार फिल्में बनाते हैं और बहुत से उत्साहित लोग उनके साजिशी अफसाने गढ़ते रहते हैं।
Written by Ashfaq Ahmad
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