वहाबियत और इस्लाम

 

 

वहाबियत दूसरी संस्कृतियों के लिये खतरनाक है


इस्लाम यूँ तो सेमेटिक की कोख से पैदा हुआ हैलेकिन अगर इसे आप इतिहास की नजर से देखेंगे तो जहां यह शुरुआती दौर में समाज सुधार का आंदोलन थावहीं यह अपने संस्थापक मुहम्मद साहब के बाद एक शुद्ध राजनीतिक आंदोलन में बदल गया थाजहां सत्ता के लिये मुसलमानों के गुट आपस मे ही लड़ रहे थे। रशिदुन खिलाफतउमय्यदअब्बासीफात्मी या ऑटोमन साम्राज्य ने जो भी लड़ाइयां लड़ीं और रियासतें जीतींउनका लक्ष्य सत्ता की प्राप्ति थी न मजहबी प्रचार प्रसार.. लेकिन बावजूद इसके बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुए और पूरी की पूरी आबादियां इस्लामिक ढांचे में ढल गयीं।


लेकिन इसमें एक बड़ी गहरी समझने लायक जो बात है वह यह कि हदीस और कुरान की रोशनी में गढ़ी गयी इस्लाम की परिभाषा एक सीमित भौगोलिक क्षेत्र के लिहाज से तो ठीक थी लेकिन वह अरब के बाहर की उन तमाम संस्कृतियों को खुद में समाहित करने के लिये बिलकुल तैयार नहीं थी जिन्होंने इस्लाम तो अपनाया लेकिन अपना वजूद भी बरकरार रखा। इस चीज को आप किसी और क्षेत्र से समझने के बजाय अपने ही देश को माॅडल के तौर पर रख कर बेहतर समझ सकते हैं।
भारत में लोग सामान्यतः हिंदू थे लेकिन जातियों/उपजातियों में बंटे हुए थे और उनके बहुत से रीति रिवाज परंपरायें बहुत पीछे से चली आ रही थीं। उन्होंने इस्लाम अपनाया जरूर लेकिन फिर भी उन रीति रिवाजोंपरंपराओं को न छोड़ा और उन्हें भी इस्लाम में ही ढाल लिया। आप जाटराजपूत मुस्लिम समाजों में बहुतेरी परंपरायें वैसी की वैसी पा सकते हैंजिनका मूल इस्लाम से कोई नाता नहीं। जिनको गुरुओं की परंपरा में यकीन थाउन्होंने पीर बना लिये.. जिन्हें मूर्तियाँ के आगे झुकने की आदत थी उन्होंने मजारों के आंचल में मंजिल तलाश ली।

ऐसा लगभग उन सभी देशों में हुआ था जिनकी अपनी सांस्कृतिक पहचान थी। उन्होंने अपनी सांस्कृतिक पहचान कोअपनी रीतियों परंपराओं को इस्लाम के साथ शामिल कर दिया था और इसे सूफी इस्लाम के रूप में एक अलग पहचान मिली थी। यह इंसान को इंसान से जोड़ने वाला वह सिलसिला था जिसका प्रभाव बहुत तेजी से तुर्कीअरबईरान से ले कर भारत तक हुआ.. इसके साथ जो कर्मकांड जुड़े वह उन्हीं दूसरी संस्कृतियों के घालमेल की वजह से थेजहां लोगों ने अपनी पुश्तैनी परंपराओं को इस्लाम से जोड़ दिया था।


उस दौर में जो भी खूनखराबा मुसलमानों द्वारा हुआवह सत्ता की भूख का नतीजा था लेकिन उसका उस इस्लामिक कट्टरता से कोई लेना देना नहीं थाजिसका विकृत स्वरूप अब चरमपंथ या आतंकवाद के रूप में हम देखते हैं। एक दौर वह भी था जब अरबी भाषा का बोलबाला थाबगदाद ज्ञान का केन्द्र कहा जाता था। ज्ञान पर जैसा वर्चस्व आज पश्चिम का है तब वैसा ही वर्चस्व अरब जगत का हुआ करता था।


दसवीं शताब्दी के वजीर इब्ने उब्वाद के पास एक लाख से अधिक किताबें थींतब इतनी किताबें पूरे योरोप के सभी पुस्तकालयों को मिला कर भी नहीं थी। अकेले बगदाद में वैज्ञानिक ज्ञान के तीस बड़े शोध केन्द्र थे। बगदाद के अलावा सिकंदरियायरूशलमअलेप्पोदमिश्कमोसुलतुस और निशपुर अरब संसार में विद्या के प्रमुख केन्द्र हुआ करते थे और इस्लाम एक अलग ही रूप में अपनी मौजूदगी कायम किये था।

भारत में उस दौर में कुरान अरबी भाषा तक ही सीमित थीजिसे अरबी सीख कर लोग सवाब के नजरिये से पढ़ लिया करते थे और हदीसों से आम इंसानों का बिलकुल भी कोई खास वास्ता नहीं था। बस मस्जिदों में कुछ खास किस्म कीअच्छाई पेश करने वाली हदीसें कभी जुमेया शबे कद्र की रात को सुनाई जाती थीं और लोग बस वहीं तक सीमित रहते थे.. या तब औरतों के बीच इज्तिमा और मिलाद जैसे इवेंट होते थे जहां कुछ अच्छी हदीसें ही दोहराई जाती थीं।


यानि तब यह शिर्क बिदत जैसे मसले बहुत ही छोटे और लगभग नगण्य पैमाने पर थे और मुसलमानों की बहुसंख्य आबादी इससे अंजान अपने अंदाज में ही जी रही थी। अलग संस्कृतियों और परंपराओं के घालमेल से ही मुसलमानों में शियाहनफ़ीमलायिकीसाफ़ईजाफ़रियाबाक़रियाबशरियाखलफ़ियाहंबलीज़ाहिरीअशरीमुन्तजिलीमुर्जियामतरुदीइस्माइलीबोहराअहमदिया जैसी अनेकों आस्थाओं ने इस्लाम के दायरे में रहते अपनी अलग पहचान बना ली थी। शुद्धता का दावा करने वाले देवबंदी खुद उस विचारधारा की पहचान के साथ जीने के बावजूद इस सांस्कृतिक विविधता को स्वीकार कर के ही आगे बढ़ रहे थे।


 शुद्ध अरबी इस्लाम की अवधारणा


इस शुद्ध अरबी इस्लाम की अवधारणा मुहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब (1703-1792) ने रखी थी जिसने इस्लाम के अंदर विकसित होती खूबसूरत और प्रगतिशील परंपराओं को ध्वस्त करना शुरू किया। उन सभी कर्मकांडोंरीति रिवाजोंपरंपराओं को पहली बार कुरान और हदीस की रोशनी में शिर्क और बिदत के रूप में पहचानना शुरू किया और इस इस्लाम को इतना संकीर्ण रूप दे दिया कि किसी तरह की आजादीखुलापनमेलजोल की कोई गुंजाइश ही न रहे।


कुरान और हदीस के दायरे के बाहर जो भी है उसे खत्म कर देने का बीड़ा उठाये अब्दुल वहाब ने हर मुशरिक के कत्ल और उसकी सम्पत्ति की लूट को हलाल करार दिया और इसके लिये बाकायदा 600 लोगों की एक सेना तैयार की और जिहाद के नाम पर हर तरफ घोड़े दौड़ा दिये। तमाम तरह की इस्लामी आस्थाओं के लोगों को उसने मौत के घाट उतारना शुरू किया। सिर्फ और सिर्फ अपनी विचारधारा का प्रचार करता रहा और जिसने उसे मानने से इंकार किया उसे मौत मिली और उसकी सम्पत्ति लूटी गयी।

मशहूर इस्लामी विचारक ज़ैद इब्न अल-खत्ताब के मकबरे पर उसने निजी तौर पर हमला किया और खुद उसे गिराया। मज़ारों और सूफी सिलसिले पर हमले का एक नया अध्याय शुरू हुआ। इसी दौरान उसने मोहम्मद इब्ने सऊद के साथ समझौता किया। मोहम्मद इब्ने सऊद दिरिया का शासक था और धन और सेना दोनों उसके पास थे। दोनों ने मिलकर तलवारों के साथ-साथ आधुनिक असलहों का भी इस्तेमाल शुरू किया। इन दोनों के समझौते से दूर-दराज के इलाकों में पहुँचकर अपनी विचारधारा को थोपना और खुले आम अन्य आस्थाओं को तबाह करना आसान हो गया।


अन्य आस्थाओं से जुड़ी तमाम किताबों को जलाना मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब का शौक सा बन गया। इसके साथ ही उसने एक और घिनौना हुक्म जारी किया और वह ये था कि जितनी सूफी मज़ारेंमकबरे या कब्रें हैंउन्हें तोड़कर वहीँ मूत्रालय बनाये जाये। सउदी अरब जो कि घोषित रूप से वहाबी आस्था पर आधारित राष्ट्र हैउसने मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब की परम्परा को जारी रखा और अपने यहां इन्हीं कारणों से नबी और उनके खानदान को समेटे कब्रिस्तान तक को समतल कर दियाकाबे के एक हिस्से अलमुकर्रमा को भी इसी कारण से गिरा दिया गया.. आज जो जिहाद का विकृत रूप हम देखते हैंवह इसी अवधारणा की कोख से पैदा हुआ है।


और सिर्फ जबरदस्ती के तौर पर ही नहीं थाबल्कि एक जन जागरण अभियान के तौर पर भी था जहां न सिर्फ मीनिंग सहित कुरान की आयतों और उन हदीसों का प्रचार प्रसार बड़े पैमाने पर किया गया जिनसे शिर्क और बिदत के रूप में उन सब चीजों को इस्लाम से अलग किया जा सके जिनका मूल इस्लाम से सम्बंध नहीं। धीरे-धीरे इस विचारधारा ने उन सभी मुस्लिम मुल्कों को अपनी चपेट में लेना शुरू किया जो अपनी मिली जुली संस्कृति के साथ खुशहाल जीवन जी रहे थे।


तुर्की में एर्दोगान के नेतृत्व में आया बदलाव आप देख सकते हैं। एक हिंदू बंगाली संस्कृति के साथ जीने वाले बांग्लादेश के बदलते रूप को आप तस्लीमा नसरीन के लेखों से समझ सकते हैं। पाकिस्तान में जिन्ना और इकबाल जो पाकिस्तान बनाने वाले और सम्मानजनक शख्सियत हुआ करती थींवह अपने अहमदियाखोजापोर्कवाईन वाले अतीत की वजह से नयी पीढ़ी के पाकिस्तानियों के ठीक उसी तरह निशाने पर हैं जिस तरह भारत में नव राष्ट्रवादियों के निशाने पर गांधी हैं.. बाकी भारत में यह बदलाव देखना है तो अपने आसपास देख लीजियेपश्चिमी यूपीहरियाणाराजस्थान के जाट राजपूत मुस्लिम समाज को देख लीजिये।


वहाबियत पूरे इस्लाम के इतिहासमान्यताओंपरस्पर सौहार्द और पहचानों के सह-अस्तित्व के साथ खिलवाड़ करती आई है.. एक पहचानएक तरह के लोगएक जैसी सोचएक किताब वाली नस्ली शुद्धता का पैमाना हिटलर ने वहाबिज्म से ही अडाॅप्ट किया था। वहाबियत से बाहर के फिरकों को इस्लाम से खारिज करार दे के उनके कत्ल तक को हलाल बताने के साथ बाकी सभी धर्मों के लोगों को तो कुफ्र के इल्जाम में वाजिबुल कत्ल करार दे दिया गयाउनकी सम्पत्ति की लूट और उनकी औरतों का धर्मांतरण जायज करार दे दिया गया। पाकिस्तानबांग्लादेश इनके मनपसंद खेल के मैदान बन गये।


यह एकरूपता का विचार समावेशी और विविधता भरे समाज के लिये किस तरह घातक हैइसे आप संघ के माॅडल से समझ सकते हैं जो अपने 'हिंदुत्व के माॅडलको विविध संस्कृतियों से लैस पूरे भारत पर एक समान थोपना चाहते हैं.. क्या नार्थ ईस्ट के आदिवासीजनजातीय समाज और दक्षिण के हिंदू समाज उस माॅडल के साथ सामंजस्य बिठा सकते हैं जिसमें 'रामएक आदर्श और श्रेष्ठ भगवान हैंक्या हिंदी पट्टी जैसा राममंदिर आंदोलन पूरे देश को उद्वेलित कर सकता हैक्या गाय पूरे भारत की माता हो सकती हैअगर नहीं तो क्या उनपे यह थोपना ठीक है.. वहाबिज्म भी इसी रूपरेखा पर चल रहा है।


संघ के पास हिंदुओं की आबादी वाले एक-दो देश है लेकिन वहाबियों के पास ढेरों देश हैं और इस विचारधारा को प्रमोट करने वाले सऊदी जैसे वह देश हैं जिनके पास बेशुमार पैसा है और जाकिर नायक जैसे विद्वान उनके ब्रांड एम्बेसडर हैं। किसी नव राष्ट्रवादी भारतीय की गांधी के प्रति सोच और नव राष्ट्रवादी पाकिस्तानी की सोच एक ही है कि वे दोनों उनके 'माॅडलसे मेल नहीं खाते।

मौलाना मौदूदी और जमाते इस्लामी


इस्लाम की जो व्याख्या इब्ने तैमिया ने चौदहवीं शताब्दी में दी थीअट्ठारहवीं शताब्दी में अब्दुल वहाब ने उसे एक व्यापक अभियान में बदल दिया और कुछ प्वाइंट्स पर असहमति के बावजूद भारतीय भूभाग में मौलाना मौदूदी ने इसे अपने तरीके से आगे बढ़ाया जो जमाते इस्लामी के फाउंडर थे।

इस्लाम में मूल रूप से इमामों के पीछे बनने वाले हनफीहंबलीशाफईमलिकी के रूप में चार फिरके थे जिसके अंदर बहुत से अलग-अलग फिरके बने लेकिन पूरे भारत (आजादी से पहले का ब्रिटिश भारत) के सुन्नी हनफी फिरके से ताल्लुक रखने वाले हैं जो उन्नीसवीं शताब्दी में अशरफ अली थानवी और अहमद रजा खां के पीछे देवबंदी और बरेलवी फिरके में बंट गये।


अरब के लोग खुद को हंबली फिरके में रखते हैंजबकि मध्यपूर्व एशिया और अफ्रीका के लोग शाफई और मालिकी फिरके से वास्ता रखते हैं लेकिन यह सभी फिरके (शिया इनसे पूरे तौर पर अलग हैं) सुन्नी हैं और इनके बीच तीन विचारधारायें सल्फीवहाबी और अहले हदीस प्रचलित हैं.. कट्टरता के मामले में आप अहले हदीसवहाबी और सल्फी को नीचे से ऊपर रख सकते हैं। सल्फी वहाबी तो एक तरह से अपने सिवा बाकी दूसरे सभी मुसलमानों को इस्लाम से ही खारिज कर देते हैं।

मौदूदी ने भारतीय भूभाग में इसी विचारधारा को आगे बढ़ाया था और जो तेजी से फलती फूलती अब इस दौर में पहुंच चुकी है कि आप पढ़े लिखेआधुनिक युग के मुस्लिम (देवबंदी) युवाओं में इस परिवर्तन को टखने से ऊंचे होते पजामेबढ़ती दाढ़ी के रूप में अपने आसपास देख सकते हैं। हां बरेलवी समाज इसके मुकाबले भले आपको खिलाफ दिखे।


इस विचारधारा के दो चेहरे हैं.. एक वह जिसने तरह-तरह के संगठन बना कर 'जिहादके नाम पर जंग छेड़ रखी है जो तब तक चलेगी जब तक पूरी दुनिया इनके रंग में न रंग जाये और दूसरा वह जो बड़े काबिल अंदाज में अपने तर्कों के सहारे उन सारी बातों को डिफेंड करता दिखता हैजिसके सहारे यह जिहादी ग्रुप पनप और पल रहे हैं।


यह खुद को बदल लेने कीअपनी बुराइयों खामियों को डिफेंड करने की एक कला है.. ठीक उस अंदाज में जैसे एक हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को आदर्श मानने वाले संघ ने खुद को दिखावे के तौर पर एक ऐसे सांस्कृतिक संगठन के रूप में बदल लिया है जो उत्तर भारत में भगवान राम के मंदिर को मुद्दा बना कर भाजपा को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा देता हैवहीं दक्षिण में राम को गरियाने वाले पेरियार समर्थकों के साथ भी खड़ा हो सकने लायक कोई संगठन या दल बना लेता हैऔर उत्तर भारत के उपास्य देवी देवताओं को अपशब्द कहने वाले लिंगायतों को साधने के लिये भी किसी न किसी रूप में ढल जाता है।

वह उत्तर भारत में गौवध के नाम पे इंसान की जान लेने वाली भीड़ भी खड़ी कर सकता है और नार्थ ईस्ट या दक्षिण में उसे खाने वाली भीड़ के साथ भी किसी न किसी रूप में खुद को ढाल लेता है। किसी भी विचारधारा के फैलाव के लिये उसमें फ्लेक्सिब्लिटी जरूरी है और यह बात वे भी जानते हैं इसलिये जो मूल विचार के साथ न एडजस्ट हो पा रहा होउसे एडजस्ट करने के लिये दूसरे अनुषांगिक संगठन और सेनायें बना ली जाती हैं जो ऊपरी तौर पर भले अलग दिख रही हों लेकिन उनकी जड़ें एक होती हैं और वे विरोधी विचार को समाहित करने से ले कर 'शूटया 'ब्लास्टकर देने तक का काम बखूबी कर लेती हैं।

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